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जब माँ काम पर जाती है

जब माँ काम पर जाती है
ढेरों ज़िम्मेदारियाँ सर पर उठाए 
अनेकों चिंताएँ मन में दबाए 
पीछे एक सन्नाटा छोड़ जाती है
जब माँ काम पर जाती है। 
 
सुबह के सूरज से पहले 
वह रोज़ जाग जाती है 
कभी मंदिर कभी रसोई 
कभी आँगन में नज़र आती है 
अपने लिए सुकून के 
दो पल भी नहीं पाती है 
जब माँ काम पर जाती है। 
 
लौट कर भी वह एक पल
विश्राम नहीं पाती है 
वात्सल्य अपना सारा 
अपने बच्चों पर लुटाती है
जब माँ काम पर जाती है। 
 
सबको खिला कर जब
ख़ुद वो खाती है 
अचानक से फिर कोई
ज़िम्मेदारी याद आती है
बिना खाए ही बीच में उठ जाती है
जब माँ काम पर जाती है। 
 
माँ के जीवन में विश्राम कहाँ 
कहाँ है उसके हिस्से का सुख 
वह तो सारा सुख अपने 
परिवार की ख़ुशियों में ही पाती है 
जब माँ काम पर जाती है। 
 
फिर भी एक माँ के महत्त्व को 
नहीं समझ पाते सब बच्चे 
तभी तो आजकल वह 
वृद्धा आश्रम में नज़र आती है
जब माँ काम पर जाती है। 

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