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एक स्त्री की मर्यादा

 

स्त्रियाँ लजाती हैं, शर्माती हैं
स्त्रियाँ लोक-लाज का घूँघट ओढ़े होती हैं। 
कुल की मर्यादा का भान है उनको 
ज़िम्मेदारी है दोनों कुलों के सम्मान की। 
 
पर यह तो फ़र्ज़ है उनका
उत्तरदायित्व है जन्म से ही
बंधन साथ लेकर पैदा होती हैं ढेर सारे
उम्र के हर मोड़ के लिए। 
 
खाने-पीने, उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने
तक से लेकर हँसने-बोलने और
मन की बात बताने तक। 
केवल ससुराल में ही नहीं
मायके में बाबुल के गलियारे तक। 
 
सीख दी जाती है बचपन से ही
मर्यादा और तौर-तरीक़ों की
पर क्या कभी सीख देता है कोई
अन्याय के ख़िलाफ़ बोलने की? 
 
क्या सीख देता है कोई 
हौसला बुलंद करने की
अपनी बात हिम्मत से रखने की
सही को सही और 
ग़लत को ग़लत कहने की। 
 
तभी तो तिल-तिल मरती है स्त्रियाँ
क्योंकि पाठ पढ़ा नहीं होता उन्होंने
अपनी स्वतंत्रता का, नई सोच में ढालने का 
अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने का। 

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