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नदी- एक विस्थापन गाथा

समीक्ष्य पुस्तक : नदी
लेखक : उषा प्रियम्वदा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन    
प्रकाशित वर्ष    : 2017
मूल्य : 395 रु.
पृष्ठ : 171 
मुखपृष्ठ : सजिल्द
आईएसबीएन : 9788126725281

‘नदी’ ख्याति प्राप्त प्रवासी कथाकार उषा प्रियम्वदा का 2014 में राजकमल से प्रकाशित छठा उपन्यास है। उनकी उपन्यास यात्रा 1961 में ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ से आरम्भ हुई थी। इस अंतराल में ‘रुकोगी नहीं राधिका’ (1966), ‘शेष यात्रा’ (1984), ‘अंतर- वंशी’ (2000) और ‘भया कबीर उदास’ (2007) उपन्यास ग्रंथ आते हैं।

कहानी विदेश/ बोस्टन की धरती पर को तीन बच्चों और तुनक मिज़ाज पति के साथ लगभग सामान्य जीवन जी रही, अपने को परिवार का केन्द्र बिन्दु मान रही उस आकाशगंगा की है, जिसके पाँच वर्षीय बेटे भविष्य की ल्यूकीमिया से मृत्यु हो जाती है। क्योंकि गंगा के दो भाइयों की भी ल्यूकीमिया से मृत्यु हुई थी, इसलिए पति सारा दोष गंगा के दूषित रक्त पर मढ़, उसे पीड़ा, आत्म लांछना, अपराध भावना से भर, उससे मुक्त होने या दंड देने के रास्ते पर चल पड़ता है। पति की इजाज़त से सुवासिनी जीजी के यहाँ वाशिंगटन में एक सप्ताह बिताकर लौटी आकाशगंगा पाती है कि पति डॉ. गगनेन्द्र बिहारी सिन्हा मकान बेच, सामान समेत, नौ और सात वर्षीय दोनों बेटियों सपना और झरना को ले भारत चले गए हैं। पासपोर्ट, वीज़ा, गहने, रुपए पैसे- सब कुछ सहेज और उस ठंडे, पराये, ग़ैर भाषाई देश में उसकी झोली में अपराधी जीवन डाल उसे नि:सहाय सी कर गए हैं। बिना वर्क पेपर के तो छोटी से छोटी नौकरी भी नहीं मिल  सकती। सागर की लहरें भी उसे स्वीकार नहीं करती। दूर ले जाकर भी किनारे पर पटक  जाती हैं। मृत्यु हाथ खींच लेती है। एरिक और अस्पताल उसे जीवन संग्राम के लिए धकेल देते हैं। अब आकाशगंगा/ गंगा  क्या करे ? कहाँ जाये ? यहीं से आकाशगंगा के कटु- कठोर जीवन की, संघर्षों की शुरुआत होती है। बिना काग़ज़ों के तो उसे अस्पताल में मरीज़ों का मल उठाने जैसा काम भी नहीं मिल सकता है। वीज़ा के पेपर मिल जाने पर भी अगर क्लर्क की नौकरी करे तो कमरे का किराया, बस का सफ़र, जीवन की दूसरी जरूरतें कहाँ पूरी हो पाएँगी?    

“बस बहने दो जीवन सरिता को, कहीं-न-कहीं- जल्दी या देरी से- कोई-न-कोई हल तो निकलेगा। ...नियति, अबूझ जीवन, प्रारब्ध- क्या नाम दें उस घटनाक्रम को जो ‘नदी’ की नायिका आकाशगंगा को जाने किस-किस रूप में कहाँ- कहाँ विस्थापित करता है।“ (रैपर-1)

बेटे भविष्य को कारण बना गगनेन्द्र बिहारी सिन्हा ने जो किया यह आकाशगंगा के जीवन का प्रथम विस्थापन है। नर्सरी गीत के हम्पटी डम्पटी की तरह ज़िंदगी कुछ ऐसे टूटती है कि कभी जुड़ नहीं पाती।   

यह अवसन्न करने वाली स्थिति, असहायावस्था, नियति- उसे एक ठौर देती है- अर्जुनसिंह का। एक सम्पन्न, दया- करुणा से भरा, चार बच्चों का पिता, धार्मिक प्रवृति का ट्रांस्पोर्टर। आलीशान सी-व्यू होटल के सजे-सजाये दो कमरे, मुग्ध प्रेमी, नित्य नए उपहार, उसके निवास के लिए फ़ॉर्म हाउस ख़रीदने की योजना, आत्म सम्मान से जीने का अवसर- गंगा जीवन सरिता को ऐसे ही बहने देना चाहती है। आत्मकेंद्रित पति पुरुष ने उसके साथ क्रूरता और अन्याय किया है। आत्महत्या का प्रयास विफल रहता है। प्रिय पुत्र को उसने पल-पल मरते देखा है। वह बुरी तरह टूटी हुई, थकी हुई और हताश है। ऐसे में अर्जुनसिह से संबंध उसे आत्मविश्वास, जीवन जीने की शक्ति देते हैं।   लेकिन दो-तीन महीने बाद ही अर्जुन सिंह का अवैधानिक कामगारों के फ़र्ज़ी काग़ज़ बनवाने के अपराध में पुलिस द्वारा पकड़े जाना गंगा को स्तब्ध कर उसके जीवन में दूसरा विस्थापन ला देता है। 

घर शेयर करने के सिलसिले में वह मात्र एक सप्ताह के लिए एरिक एरिक्सन के सम्पर्क में आती है। उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उससे भी संबंध स्थापित कर लेती है। उसे पहली बार लगता है कि वह अभी युवती है, उन्मुक्त है, जाने कितनी अनचीन्ही भावनाएँ उसके अंदर हैं। एरिक से उसके संबंध देहराग से, ऐंद्रियता से  आगे आत्मराग के हैं, अतीन्द्रिय हैं। लेकिन अपनी रिसर्च यानी बाल कैंसर पर शोध के लिए एरिक का स्विट्ज़रलैंड चले जाना गंगा के जीवन में आने वाला तीसरा विस्थापन है।  

वह भारत आती है। बेटियों का प्यार, सास-ससुर का भद्र व्यवहार उसे मोह लेते हैं। प्रारब्ध यहाँ भी उसके साथ नहीं है। कोई संबल-सहारा नहीं, पर चौथा विस्थापन उसे देश छोड़ने को विवश करता है, क्योंकि उसके गर्भ में एरिक एरिक्सन का अंश है। जीवन उसूलों से नहीं चलता, बार-बार झंझावात आते हैं और गंगा को रास्ता बदलने के लिए विवश करते हैं।   

वह गर्भावस्था के बावजूद सिर की छत और दो वक़्त की रोटी के लिए उत्तरी कैलिफ़ोर्निया में रह रही कैंसर पीड़ित प्रवीण बहन की दिन-रात अवैतनिक दासी बन कर सेवा करती है, पर कैंसर उन्हें जल्दी ही लील जाता है । गंगा अब क्या करे? कहाँ जाए? दादा ने कहा था कि भारत में उसके नाम दो फ़्लैट हैं। कभी सोचा था कि एक में रहेगी और एक किराये पर चढ़ा कर अपना खर्च चला लेगी। बाद में पता चला कि उन पर उन जज-वकील दादा लोगों ने ही कब्ज़ा कर रखा है। वह स्वदेश कैसे आ सकती है। यह गंगा के लिए अगला विस्थापन है।  

प्रवीण बहन के कहा था- "मेरे बाद मेरे पति प्रवीण जी को तुम्ही सँभालना।" और वह वहीं रह जाती है। प्रवीण जी को लकवा हो जाता है। गंगा डेढ़ साल उनकी भी पूरी सेवा करती है। लेकिन यह कृतध्न पुरुष इतनी ज़मीन जायदाद के बावजूद मृत्यु से पहले उसके नाम कुछ भी नहीं करके जाता। पिछली उम्र में उसे एक किसान स्त्री की तरह दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है और प्रवीण जी के बेटे यशवंत की करुण और उदार दृष्टि का पात्र बनना पड़ता है। यह षष्ठ विस्थापन है।

‘नदी’ तीन खंडों मे विभाजित है। प्रथम खंड में युवा, परित्यक्त, मानसिक रूप से टूटी, अकेली, आश्रय की तलाश में, नदी की तरह इधर-उधर भटक/बह रही, आकाशगंगा से धरती की गंगा बनी स्त्री है। दूसरा खंड प्रवीण बहन के यहाँ आकाशगंगा के आने से लेकर प्रवीण बहन की मृत्यु तक है। तीसरे खंड में अपने जन्म से बिछुड़े पुत्र स्टीवेन से 19 वर्ष बाद मिली, उसके स्नेह- वात्सल्य में डूबी, बीते जीवन का लेखा-जोखा करती, एक बार फिर स्वप्न लोक में तैरती माँ आकाशगंगा है। मानों जीवन का सबसे बड़ा सुख उसकी झोली में आ गिरा हो। वह उसका बायलोजिकल पुत्र है। उसमें जन्मजात भारतीय संस्कार हैं। वह भारतीय संगीत में रुचि रखता है। विदेशी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ता है। माँ के साथ भारत भ्रमण करना चाहता है।  
 
उपन्यास नायिका प्रधान है, स्त्री केन्द्रित है। नायिका का पति गगनेन्द्र उच्च नहीं उच्चतम शिक्षित है और विश्व के अत्याधुनिक देश के अत्याधुनिक शहर बोस्टन में कार्यरत है। लेकिन वह पत्नी उत्पीड़न की सारी हदें पार कर देता है। उस ठंडे पराये देश में बिना पासपोर्ट, वीज़ा, रुपए-पैसे के पत्नी को छोड़ आता है। वह स्त्री अँधेरे अकेले घर में, कीमोथैरेपी लाउन्ज में, समुन्द्र किनारे के खारे पानी और तर ठंडी बालू पर तड़पती रहती है- वह अवांछित है, उसकी किसी को ज़रूरत नहीं। घर-परिवार से विस्थापन उसे आत्महत्या की ओर धकेलता है। गगनबिहारी ज़िंदा है और गंगा का चेतन अवचेतन बार-बार विधवा माँ से अपनी तुलना करता है और अपने को बदतर स्थिति में पाता है। माँ के पास संतान थी, घर था, अपना देश, संस्कृति, भाषा, धर्म और सम्बन्धी थे- उसके पास कुछ भी नहीं है।        

अनेक पात्र कैंसर से जूझ रहे हैं। आकाशगंगा के दो भाइयों की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है। आकाशगंगा का बेटा भविष्य पाँच साल की उम्र में कैंसर के कारण मृत्यु की गोद में समा जाता है। प्रवीण बहन का कैंसर चौथी स्टेज पर है। आकाशगंगा का बेटा स्तव्य या स्टीवेन कैंसर पर बहुत कुछ विजय पा लेता है। बोस्टन के अस्पताल का कैंसर विशेषज्ञ डॉ. एरिक अमेरिका से स्विट्जरलैंड के अस्पताल जाकर रिसर्च करता है और बेटी तूलिका की बोन मैरो की मदद से अपने बायोलोजिकल बेटे स्टीवेन का जीवन बचा लेता है। एरिक को गंगा और स्टीवेन महामानव की तरह ही ले रहे हैं।  

पूजा-अनुष्ठान, भविष्यवाणी या ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास की बात भी आती है। क्या भारत और क्या अमेरिका- पंडित या स्वामी लोग अपनी दैवी शक्ति से गंगा को देख कर ही बता देते हैं कि उसके भाग्य में पुत्र/संतान सुख नहीं है। बेटे के कल्याण के लिए उसे अपने से दूर करना अनिवार्य है। बेटे बहू के स्वस्थ गृहस्थ जीवन के लिए गंगा की सास से पंडित जी 21000 रुपये का अनुष्ठान कराने के लिए कहते हैं। स्टीवेन के संस्कृत के गुरुजी उसके स्वास्थ्य के लिए महामृत्युंज्य के सवा लाख मंत्रों का जाप करवाते हैं।       

अर्जुनसिंह की समृद्धि के पीछे मानव यातायात है। लोग कैनेडा से पैदल चलकर, मैक्सिको से गाड़ियों में छुपकर आते हैं- अर्जुनसिंह उनके फ़र्ज़ी काग़ज़ बनवाकर उनसे सस्ते में टैक्सी चलवाते हैं। प्रवीण जी, गंगा और उनके बेटे यशवंत ने भी मैक्सिकन या दूसरे अवैध मज़दूर पाल रखे हैं। दोनों का फ़ायदा है। मज़दूरों को रोटी-रोज़ी मिलती है और इन्हें काम की तंगी नहीं होती। 

गगनबिहारी सिन्हा भले ही आत्मकेंद्रित खलपुरुष हैं, पर संसार में अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। मार्था और रॉबर्ट जैसे संवेदनशील पड़ोसी, अर्जुनसिंह जैसा धर्म परायण और सज्जन, एरिक जैसा शोधार्थी, प्रवीण बहन जैसी संरक्षक सखी,  वैरोनिका जैसी हिम्मती और विवेकशील स्त्री, यशवंत जैसा करुण और उदार सौतेला बेटा, डॉ. कैथरीन बसबी जैसी शरीफ़ और भली स्त्री, गगनबिहारी के माँ-बाप जैसे संस्कारी और स्नेहशील सास- ससुर बताते हैं कि हर व्यथा कथा के साथ जीवन को जीने योग्य बनाने में बहुत से मानवीय हाथ जुड़े रहते हैं। 

विवाह की पवित्रता, दांपत्यगत मूल्यवत्ता भारतीय मानसिकता से जुड़ी है। इसी के कारण गंगा अपने देश से विस्थापित होती है। इसी के कारण उसे अपना बच्चा न चाहते हुये भी डॉ. कैथरीन बसबी को देना पड़ता है। स्पष्ट है कि अवैध गोरे बच्चे को न सिन्हा अपनाएगा और न प्रवीण जी। नियति देखो ! जिस बच्चे के कारण उसने अपनी बेटियों को छोड़ा, उसी को किसी को दे देना पड़ा। 

ऑनर किल्लिग जैसा भी एक प्रसंग आता है, प्रवीण के प्रेमी फकीरचंद को मार गंदे नाले में फेंक दिया जाता है और उसे पति के पास कैलिफ़ोर्निया भेज दिया जाता है। दान-दहेज का भी ज़िक्र है। प्रवीण बहन को शादी में खूब दहेज मिला और झरना की शादी में फ़्लैट, गाड़ी, फ़र्निचर- सब दिया गया। 

सूत्रात्मता उपन्यास के कथ्य और शिल्पगत सौन्दर्य में लगातार संवर्द्धन कर रही है-  

  • कभी बड़े सदमे से इंसान ठीक सोच- समझ नहीं पाता। पृ. 15

  • लहरों की नियति यही है, पत्थरों पर सिर पटकना और लौट जाना। पृ. 32 

  • एक बार अगर ज़िंदगी की गाड़ी पटरी से उतर जाये तो फिर वापस आना दुरूह ही नहीं, असंभव होता है। पृ. 42  

  • दबकर मत रहना, पर तुम भी दबाना मत, सम्बन्धों में लेन- देन चलता ही रहता है। पृ. 59

  • डॉक्टर, दवाइयाँ और मशीनें वेदना और ज़िंदगी बढ़ा देती है। पृ. 60    

  • भाग्यवान होते हैं वह, जिन्हें जीवन की हर मनचाही चीज़ मिल जाती है या फिर वह जीवन से समझौता कर लेते हैं। पृ. 163  

यह विदेश में वनवास काटती एक सन्यासिन/ वैरागिन की व्यथा कथा है, जिसे जीवन में पति, प्रेमी, मित्र, संतान किसी का साथ नहीं मिला। वह बार-बार विस्थापित होती रही, नदी की तरह इधर-उधर भटकती रही। लहरों की तरह पत्थरों से सिर पटकती रही।  

डॉ. मधु संधु, 
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, 
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब

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