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रामकिशोर उपाध्याय की काव्यकृति 'दीवार में आले'

रामकिशोर उपाध्याय अपने इस कविता संग्रह "दीवार में आले" के माध्यम से एक ऐसे सुपरिचित संवेदनशील कवि के रूप में अपनी पहचान को गहराते हुए सामने आते हैं जिसके निकट वैयक्तिक और निजी अनुभूतियाँ भी तभी सार्थक और व्याख्येय हैं जब वे किसी सामान्य और सामाजिक अनुभव के यथार्थ से जुड़कर व्यापक संदर्भ प्राप्त करती हैं। साधारण प्रतीत होने वाली दैनंदिन घटनाओं के माध्यम से सहृदय के मानस को झकझोरने और कचोटने के अद्भुत सामर्थ्य से संपन्न ये कविताएँ अपनी सादगी से भी पाठक को मुग्ध कर जाती हैं। सरोकार की यह व्यापकता और अभिव्यक्ति की यह व्यंजकता कवि रामकिशोर उपाध्याय ने लोक जीवन के सहज सामीप्य से अर्जित की है। यह संग्रह उनकी लोकप्राण रचनाधर्मिता को बख़ूबी रेखांकित करता है। यही नई शती के कवियों के बीच उनकी निजी और मौलिक छवि का आधार है।

इस संग्रह में प्रस्तुत कुल 52 कविताओं में से अधिकतर में कवि ने समकालीन भारतीय जनमानस की चिंताओं को लाग-लपेट के बिना अभिव्यक्ति प्रदान की है। धार्मिक, सांप्रदायिक, क्षेत्रीय और भाषायी आग्रहों के तुमुल कोलाहल में ये कविताएँ धर्म-संप्रदाय से परे हवा और नदी की तरह मनुष्य से मन की बात करती हैं। इनकी जीवनी शक्ति लोकजीवन के प्रति इनकी आसक्ति में निहित है जो संग्रह की शीर्षक कविता से भी संक्षेप में, किंतु भली-भाँति, व्यक्त हुई है। रचनाकार के स्मृतिलोक में विलुप्तप्राय लोक की स्मृतियाँ आज भी दर्ज हैं जिनके सहारे वह विडंबना और विवशता का ऐसा पाठ रचता है कि पाठक एक ख़ास तरह की कसक और चुभन महसूस करता है। यह अनुभूति तब और भी गहराती जब इसका संबंध पाठक की चेतना में पहले से विद्यमान किसी व्यापक लोकानुभूति, पौराणिक प्रसंग या मिथक से जुड़ जाता है। अभिव्यक्ति की यह तकनीक ही रामकिशोर उपाध्याय की कविताओं की व्यंजन शक्ति को बढ़ाती है। यथा –

भुरभुरी यादों की
चिकनी दोमट मिट्टी से
खुद ही दीपक बनाकर
अपनी आँखों की ज्योति से....
अपनी निद्रा के घी से ......
हर रोज रात में आलों को प्रकाशित करता
काश! आज मेरे घर की दीवारों में आले होते .... ।

वस्तुतः कवि रामकिशोर उपाध्याय उन स्थलों पर सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करते हैं जहाँ वे कविता के चालू मुहावरे के पार जाकर देशजता और तद्भवता में अपनी काव्यभाषा की तलाश करते हैं। इस तलाश ने उन्हें लोक से नाभिनालबद्ध अनेक प्रभावी उपमान, रूपक, प्रतीक और बिंब प्रदान किए हैं। कुछ मिश्रित उदाहरण देखते हुए आइए इस कविता संग्रह के लोकधर्मी पाठ का विहंगावलोकन करते चलें : उबल-उबल कर आलू हो गया सारा जिस्म/ जब गर्म हवा छू गई उर्मियाँ तो सिंक गया ज़हन/ बैल की जोट/ गूँगी बिंदी/ पर इनकी आँखें चीखती हैं दर्द से, जब इनको निचोड़ा जाता है/ समय की कुक्षी में पल रहे भविष्य के बच्चे/ अवनि की बड़ी सी चादर हो, किसी पीर की दरगाह पर जैसे क्षितिज तक फैली/ कभी नंगे पाँव दौड़ती, गायों के खुरों से मिट्टी उड़ाती/ झील में पड़ी काई को कंकड़ से नहीं हटाया गया, कहीं बेवजह लहरों की नींद न टूट जाए / लाल लाल लावा, नीला नीला अंबर, दौड़ती रगें, नई चिकनी कोंपलें/ पानीदार नदी/ ख़ुश हो पराग बिखेरता पुष्प/ आसमानी छतरी/ तितलियों के पंखों पर बैठकर आते शब्द/ अटरिया पर बैठा सावन/ और बूँदें ऐसे गिराते, जैसे किसी की ख़ुश्क आँखों से टपकती हों यादें/ मन के सूखे तवे पर छू छू करके नाचते हे सूखे सावन/ जलते अलाव, टाट की बोरी के टुकड़े/ बरखा झमझमाकर गीत गा गई। इस तरह के तमाम प्रयोग इस कवि के सरोकार की व्यापकता के साथ ही अनुभूतियों की गहराई और अभिव्यक्ति की ताज़गी का विश्वास दिलाते हैं और संकेत भी करते हैं कि कवि रामकिशोर उपाध्याय की अपनी ज़मीन यही है – इसी में उन्हें अपनी भावी रचनाओं की फसलें उगानी चाहिए।

रामकिशोर की कविताओं का एक और मार्मिक पाठ ग्रामीण जन की असुविधाग्रस्त जीवनी से रचा गया है। इस पाठ में एक ओर भारतीय लोकतंत्र की विफलता से उत्पन्न पीड़ा शामिल है तो दूसरी ओर परिवर्तन के प्रति अंतिम विश्वास रखने वाली वह जिजीविषा है जिसके बल पर इस देश का साधारण आदमी ख़ुद को आत्महत्या से बचाता है। इस संग्रह में अनेक स्थलों पर अलग–अलग प्रकार से कवि ने बाढ़ के संदर्भ जुटाए हैं। बाढ़ कहीं न कहीं कवि के भीतर भी है। इस अंतर्बाह्य बाढ़ के साथ पर्यावरण विमर्श से लेकर आदिवासी विमर्श तक के वे तमाम मुद्दे जुड़े हुए हैं जो प्रगति और विकास के नाम पर विनाश और विस्थापन की समस्याओं को उपजाकर लोक और प्रकृति को ही नष्ट नहीं कर रहे है, पृथ्वीग्रह और मनुष्यजाति के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसे संदर्भ स्थानीयता का अतिक्रमण करके इन कविताओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। इस पाठ में जन की यातना को कवि कभी प्रश्नों के माध्यम से व्यक्त करता है तो कभी कथात्मकता, संवाद और चित्रनिर्माण की तकनीकों का सहारा लेता है। लोकसमाज की सरलता और भद्रसमाज की धूर्तता को कवि समांतरता द्वारा उभारता है तो दरिद्रता और संपन्नता के द्वंद्व को विडंबना और विसंगति के सहारे व्यक्त करता है। परिवर्तन की आकांक्षा को सतत जिलाए रखने में इस यातना-पाठ का मर्म निहित है –

अफ़सोस है कि मैं बकरी नही हूँ
इस मुल्क की प्रजा हूँ
अब देखना है कि यह बाड़ा
मुझे कब तक रोक कर रखता है..
आखिर वो सुबह कभी तो आएगी ......।

यहाँ यह भी कहना ज़रूरी लग रहा है कि रामकिशोर केवल लोकवेदना के ही गायक नहीं हैं, प्रेम और सौंदर्य के भी चितेरे हैं। उन्होंने प्रेम की पीर को भी समान शिद्दत से उकेरा है। उपमानों की एक माला देखते चलें-

छोटे से वृक्ष की लंबी छाया हो
ताल में खिला कँवल हो
सूर्य की किरणों में दिखा चंद्रमा हो
मोहक चाँदनी में खिली तेज़ धूप हो
साहित्यिक अभिव्यक्ति से परे
लालित्य का अनुपम भंडार हो
किसी विशेषण से अधिक विशेष
अलभ्य सौदर्य को चिढ़ाता शृंगार हो
क्या फर्क पड़ता है ...............तुम क्या हो!

बहुत कुछ है अभी कहने को। अभी तो बात शुरू ही की है मैंने। लेकिन,बाक़ी बातें फिर कभी विस्तार से।

… आज तो "दीवार में आले" की अपनी पसंद की इस कविता के साथ आपसे विदा लूँगा कि-

दर्द में बिलकुल न झुके
आस में तनकर खड़े
विश्वास में चुप-चुप दिखे
क्या तुम कभी पिता थे .................
*
भार से झुककर चले
धैर्य में डटकर खड़े
प्यार में पल- पल बहे
क्या तुम कभी माँ थे ........................
*
धूप में सीधे खड़े
साँझ को नीचे झुके
वर्षा में टप-टप झरे
तुम क्या कभी वटवृक्ष थे ....................

"दीवार में आले" के प्रकाशन पर कवि रामकिशोर उपाध्याय को समस्त शुभकामनाएँ!

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