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सन राइज इंडस्ट्री

महँगाई की दर जैसे दस प्रतिशत तक आ रही है, चीजों के भाव जैसे बढ़ते जा रहे हैं, वित्त मंत्री चिदबरम और प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जैसे घोषणाएँ कर रहे हैं कि छठा वेतन आयोग समझ चुका है लोग हाई टैक इंडस्ट्री में ही जाना क्यों पसन्द करते हैं। सरकारी नौकरी लोगों की अंतिम चॉयस क्यों हो गई है? अमित को लगता है कि उस समय उसने ठीक निर्णय ही किया था। अर्थ के धरातल पर सब ठीक ही है। उस ज़माने में उसके जितने साथी ऐसी नौकरी छोड़कर गए थे, ज़िंदगी में ठीक से वैसे सैटल नहीं हो पाए। कभी सुनहले भविष्य की आकांक्षाएँ उसे  बी.पी.ओ.  इंडस्ट्री तक ले आई थी, आज वह यहाँ से छुटकारा चाहता है, घुटन महसूस करता है। दस वर्ष घिसट लिया, बस बहुत हो गया। अब और नहीं। बी.पी.ओ.  की अलग अलग शिफ़्टों ने शरीर को सामान्य नहीं रहने दिया। अनिद्रा रोग ने अलग स्थायी डेरा जमा लिया है। प्राइवेट एम. बी. ए. करके कहीं निकल जाए। पर कहाँ ? कैसे ? कुछ नहीं सूझता। सभी कहते हैं- इसी का अनुभव है। लाईन मत बदलो। बी. पी. ओ. के इंस्ट्रक्टर बन जाओ। बी.पी.ओ. की कोचिंग क्लासेज़ ले लो। उसका मन उखड़ा-उखड़ा रहता है। कुछ समझ में नहीं आता।

इस ओद्यौगिक शहर में अन्नामलाई से आई विद्या और बीना ने अपनी ही दुनिया बसा ली है। विगत चौदह  वर्षों से घर से बाहर हैं। यहाँ किराए का घर शेयर करती हैं। जब कभी अन्नामलाई जाना हो, इकट्ठी जाती और लौट आती हैं। दोनों धीरे धीरे जान गई हैं कि माँ बाप को उनकी कम उनसे मिलने वाले आर्थिक सहयोग की अधिक आवश्यकता है और कम्पनी में भी कुछ चतुर लोग प्रमोशन में आड़े आ रहे हैं। दोनों ने एक साथ रिलायन्स छोड़ टाटा इलेक्सी जॉयन कर ली । किश्तों पर बंगला खरीद लिया। फर्नीचर से लेकर हर छोटी मोटी लग्जरी जुटा ली। एक लम्बी इंडिगो गाड़ी लेकर अपने ठाठ को चार चाँद लगा लिए। लोग तो उन्हें जीवन साथी कहते हैं। कहते रहें। बुरा भी क्या है। कभी पड़ोस में घर थे। इकट्ठे स्कूलिंग की । बी टेक किया। एक ही कम्पनी में प्लेसमेंट हुई और आज इस कम्पनी में हैं। लिव- इन- रिलेशनशिप में रहने या इस उस से शोषित होने से तो अच्छा है। लेस्वियन्स कोई ग्रंथि नहीं है। 

सुगम स्वभाव से घरघुसरा था। वह यहाँ नहीं आना चाहता था। अपने शहर के किसी कालेज वगैरह में नौकरी कर पैरेन्टस की पसन्द की किसी समिधा, वसुधा, अमिधा से शादी कर एक नार्मल घर बसाना चाहता था। घर में सब कुछ था। पूरा फैला बिजनेस था। पर नहीं ! माँ, दादी, नानी  सभी पढ़े लिखे बेटे का आफिसराना रूप देखना चाहती थी। उसके पैकेज की यहाँ वहाँ चर्चा कर अपना कद बढ़ाना चाहती थी। वह ऐसा यहाँ आया, ऐसा रचा बसा कि मुड़ कर नहीं देखा। अब तो विदेश के भी जब तब चक्कर लगते रहते हैं। बहुत पहले एक ट्रेनिंग में सिडनी में एक युवती भा गई थी। पर मौका ही नहीं मिला। अब सागर किनारे कोलाबा के ५०० वर्गमीटर के फलैट में रहता है। पंजाबी रसोइया है। फास्ट कार-ड्राइविंग और स्पीड बोट के लिए उसमें पैशन हैं। कुत्तों को इम्पोर्टेड चाकलेट खिलाना अच्छा लगता है। दिन में अठारह घण्टे काम करने वालों के लिए इतना ही काफी है। घर-परिवार- बच्चे - इस बारे में सोचे तो दशकों गुज़र गए। अब उम्र का पच्चास्वाँ वर्ष चल रहा है। एक चौथाई शताब्दी बीत गई, इस शहर में डेरा डाले हुए। पाचन रोग से हैल्थ-क्लब ने छुटकारा दिलवा दिया है और हृदय रोग से ऑफ़िस में लगने वाले मेडिटेशन सैशन ने। शादी का क्या? न महाभारत के भीष्म पितामह ने की, न महाबली हनुमान ने, न ग्रीक फिलासफर प्लेटो ने, न फ्रांस के अस्तित्ववादी जाँ पॉल सार्त्रा ने, न हवाई जहाज के प्रथम अन्वेषक राइट ब्रदरज़ ने , न पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने, न छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत ने, न टाटा कारपोरेट जगत के महानायक रतन टाटा ने, न जाने माने अभिनेता संजीव कुमार और सलमान खान ने। 

लडकियाँ तो अभि पर यहाँ भी बहुत मरती हैं। उससे अधिक के पैकेज वाली पलक, पायल, प्रतिभा तक। पर उसे पैसे नहीं चाहिए। इतने ही खत्म नहीं होते। उसे घरेलू लड़की चाहिए। ऐसी लड़की, जो उसके घर पहुँचते ही उसे स्वीट होम का अहसास दे। प्रतियोगी या बॉस नहीं अनुगामिनी चाहिए। ऐसा न हो कि दोनों अलग अलग दिशाओं में भागें। 

वह घर पहुँच चहकते हुए घोषणा करे-

“डार्लिंग ! जरा पैकिंग कर देना । डेढ़ महीने के लिए अमेरिका जाना है।”

और वह अनुरागों में डूबी हुई बोले-

“हनी! मैं भी तीन महीने के लिए ट्रेनिंग पर ब्रिटेन जा रही हूँ। तुम ज़रा अपने बॉस को पटा लो। बेटा तो तुम्हारे बिना रहता ही नहीं है।” 

या कहे

“हॅबी डियर! सुबह यह प्रोजैक्ट कम्पलीट करके ले जाना है।”

और सुबह चार बजे तक कम्प्यूटर से ही खट-पट करती रहे।

या फिर वह बेड रूम में मोबाइल पकड़ अपने बॉस से करेंट प्रोजेक्ट पर डिस्कशन करती ’यस सर यस सर’ के गीत गाती रहे। 

न बाबा न। उसे मालूम है कि कम्पनियाँ अपने एम्पलॉयज़ को इतना बाँधती हैं कि गृहस्थ जीवन  टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। यह ओद्यौगिक क्रांति का समय हैं। 

भूमण्डलीकरण ने ’सात समुद्र पार‘ मुहावरे को ही तहस-नहस कर दिया है। भारत की हच खरीदी गई। रैनबैक्सी को जापानी दायचु सैंक्यो ने खरीद लिया। विदेशी कम्पनियाँ खरीदने में तो भारत के रतन टाटा का भी कोई मुकाबला नहीं। वह कभी अमेरिका की टेलीग्लोब इंटरनेशनल, टाएको ग्लोबल नेटवर्क, एट ओ क्लॉक, कभी इंडोनेशिया की पी टी बूमी, कभी ब्रिटेन की कोरस, कभी लैंड रोवर और जगुआर खरीद रहे हैं। ओबामा अमेरिकी अर्थतंत्र की बात करते भारतीय कारपोरेट जगत की विजय यात्रा का उल्लेख करते हैं। आदमी स्वदेश की यात्रओं से सकुचा सकता है, पर विदेश यात्राएँ तो यहाँ रूटीन हैं।

उसने अपने कई साथियों को डायवोर्स के दौर से गुज़रते देखा है। यह कोई सरकारी अर्द्ध-सरकारी नौकरी तो है नहीं कि बॉस को थोड़ा बहुत दे दिला कर इनडोर पत्नी के और आउटडोर अपने नाम करवा लो। 

 शादी के लिए पहले ममा के पत्र आते रहे, फिर एक रोज़ ममा स्वयं ही आ धमकी। उसे पबिंग और डिस्को संस्कृति में पूरी तरह धँसे देखकर उन्हें काफी परेशानी भी हुई। लगा बेटा हाथ से निकल गया है। उन्होंने सब समझते हुए बोल दिया था -

“अभि ! बस इतना चाहती हूँ कि तुम्हारा घर बस जाए। बस! मुझे बहू चाहिए। तुम्हारी पसन्द ही सबकी पसन्द है।”

“न ममा! यह सब तो टाइम पास है। शादी सिर्फ आपकी पसन्द की लड़की से ही करूँगा।” - उसने स्पष्ट कह दिया। क्योंकि यह चकाचौंध वह गहरे पैठ कर देख चुका था। 

घरेलू पत्नी को भी कई बार यहाँ का जीवन जीने लायक नहीं लगता। विपिन की पत्नी ने उससे इसलिए नाता तोड़ लिया कि कई बार कम्पनी उसे देर रात तक उलझाए रखती थी। अनुज की पत्नी डायवोर्स के लिए इसलिए छटपटाती रही कि अकेलापन उससे बर्दाश्त नहीं होता था।

वह न तो इन्फोसिस का नारायण मूर्ति है न टाटा ग्रुप का नवल टाटा कि सुधा मूर्ति को चेयर परसन बना या सीमोन टाटा को लेक्मे या टरेंट दे अपने साम्राज्य पर नियन्त्रण रखे। वह बस इतना जानता है कि पत्नी हाउस वाइफ हो तो घर में स्वीट होम की कन्सेप्ट बनी रह सकती है।  छुट्टी के दिन अकेले घूमने से निजात भी मिल जाती है। एकल परिवार के उबाऊपन से छुटकारा पाने के लिए वह  तो ममा-पापा को भी साथ रखना चाहता है।

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