स्मृतियों में हार्वर्ड
नाबोकोव और नीली तितली
“सात साल की उम्र से आयताकार तस्वीर वाले सूर्य-प्रकाश के बारे में मेरा जो कुछ अनुभव है, उसमें केवल एक ही जुनून हावी था। यदि सुबह मेरी पहली नज़र सूर्य पर पड़ती थी, तो मेरे मन में मेरा पहला विचार आता था उन तितलियों के बारे में, जो उसके लिए ख़तरा हो सकती थी।”
उपर्युक्त कुछ पंक्तियाँ प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार व्लादिमीर नाबोकोव की आत्मकथा ‘स्पीक मेमोरी’ से ली गई हैं। मुझे यक़ीन है कि नाबाकोव के मेरे जैसे कई अन्य पाठकों और प्रशंसकों को यह नहीं पता होगा कि ‘लोलिता’ और कई अन्य उल्लेखनीय रचनाओं के सर्जक नाबोकोव का तितलियों के लिए प्रति अपरिमित अमर आकर्षण था। यह आकर्षण खींच लाया उन्हें बीसवीं सदी के चौथे दशक में छह वर्षों तक हार्वर्ड के म्यूज़ियम ऑफ़ कम्पेरेटिव जूलॉजी में अनुसंधान सहयोगी के रूप में काम करने के लिए। जीव वैज्ञानिकों में अलग-अलग राय थी, उनके तितलियों के संग्रहण, वर्गीकरण, विश्लेषण के तरीक़ों और उनके बारे में लिखे गए अनुसंधान लेखों के बारे में। कुछ जीव वैज्ञानिक उन्हें उच्च कोटि के विज्ञान-सम्मत और शोध-आधारित आलेख मानते हैं। तो कुछ उन्हें शौक़िया काम का दर्जा देते हैं। दो प्रख्यात शोधकर्ताओं ने 1981-82 में नाबोकोव के अनुसंधान क्षेत्र को ‘पथ-प्रदर्शक’ मानते हुए उनके सम्मानार्थ नीली तितलियों की एक विशेष प्रजाति का नाम ‘मेडेलिनिया लोलिता’ दिया।
यूनिवर्सिटी के म्यूज़ियम ऑफ़ कम्पेरेटिव जूलॉजी में मेरे एक साल प्रवास के दौरान “नाबोकोव की तितलियाँ” नामक एक बड़ी प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था जिसमें उनके संगृहीत अध्ययन, गवेषणा, वर्गीकरण के नमूने प्रदर्शित किए गए थे। उनके सभी शोध लेख भी वहाँ रखे गए थे। यह प्रदर्शनी मेरे लिए एक यादगार थी।
अपनी आत्मकथा में, नाबोकोव ने कहा है, “मैंने बहुत सारे देशों की अलग-अलग जलवायु में विभिन्न परिधानों में जैसे कभी नाविक की टोपी तो कभी निकर पहने सुंदर बच्चे तो फ्लैनेल बैग और सिर पर ‘बरे’ पहने सर्वदेशीय और देश निष्कासित पतले आदमी तो कभी टोपीविहीन हाफ़पैंट पहने मोटे बूढ़े आदमी के रूप में तितलियों का अन्वेषण किया है।”
मैंने अपने आईएससी के दौरान चौथे वैकल्पिक विषय के रूप में जूलॉजी का अध्ययन किया था। लेकिन मैंने एक प्राणी के रूप में तितली का अध्ययन नहीं किया था। मैं बचपन से तितलियों को प्यार करता था और वे अपने रंग-उड़ान के साथ मेरी कविताओं में आई थीं। समझ में नहीं आने के बावजूद भी मैंने प्रदर्शनी के बीस शोध पत्रों पर अपनी निगाहें डालीं। जीव-विज्ञान प्रयोगशाला में आईएससी छात्र के रूप में 1953-55 की प्रेक्टिकल क्लास में मैंने मेंढक को इधर-उधर काट दिया तो ट्रे का पानी रक्ताक्त हो गया था और ईसा मसीह की तरह क्रूस पर चढ़े मेंढक के प्रति मेरे मन में दया-भाव आ रहा था। यह सारा दृश्य मेरे स्मृति-पटल पर तरोताज़ा हो गया था। मुझे रेवेन्सा कॉलेज के जूलॉजी के प्रोफ़ेसर बसंत कुमार बेहुरिया भी बहुत याद आने लगे।
प्रदर्शनी ने मुझे नाबोकोव की बहुत पहले पढ़ी हुई एक कविता याद दिला दी। कविता का शीर्षक था ‘ऑन डिस्कवरिंग ए बटरफ्लाई’। कविता इस प्रकार थी:
“The features it combines mark it
as new to science, shape and shade the special tingle
akin to moonlight, tempering its blue
the dingy underside, the checkered fringle
। found it and named it, being versed
in taxonomic Latin
। thus became
godfather to an insect and its first
describer— and । want no other fame.”
मुझे इस कविता ने मंत्रमुग्ध कर दिया था। मुझे यह कविता विचित्र लग रही थी।
“मुझे कुछ भी यश नहीं चाहिए। चाँदनी की तरह विशिष्ट आभा खेल रही थी उसके पेट के नीचे।”
क्या सचमुच में यह तितली-प्रेमी लेखक कह सके कि तितली के सिवाय यश नहीं चाहिए? अन्य लोगों की तरह मैंने भी बचपन में कई रंग-बिरंगी तितलियों को देखा था। मैं उनके पीछे भागता था और उनके जीवन के विभिन्न चरणों को नज़दीक से देखता था। नाबोकोव की कविता पढ़ने के बाद मैंने नीली तितलियों को नए दृष्टिकोण से देखा। मैं इस मायने में बहुत भाग्यशाली था कि मेरे भुवनेश्वर के सत्यनगर घर में कुछ नीली तितलियाँ (निश्चित रूप से कम से कम एक या दो) दिखाई पड़ जाती थीं। मुझे अपने लॉन पर एक बार उनका एक नीला पंख मिला था, जो किसी अप्सरा के पंख की तरह था। मैंने अकारण घर के लड़के को डाँटा, “तो तुमने इस तितली को मार डाला!” विनम्र तरीक़े से सिर हिलाने के सिवाय वह क्या कर सकता था! मैंने उस नीले पंख को उठाकर अपनी डायरी में रखा। वह अभी भी डायरी में है। कई बार पन्ने टटोलते समय वह पंख मिलता है तो मेरी स्मृतियाँ आसमान में उड़ने लगती हैं।
हार्वर्ड में अनुसंधान सहयोगी के रूप में अपनी कार्यकाल पूरा करने के बाद, नाबोकोव वेलेस्ले कॉलेज में अंशकालिक प्रोफ़ेसर बने। बाद में वे कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पूर्णकालिक प्रोफ़ेसर बन गए। हालाँकि, उन्होंने सन् 1977 में अपनी मृत्यु तक तितलियों पर अनुसंधान कार्य जारी रखा।
प्रदर्शनी में मुझे नाबोकोव की रचनाएँ, समालोचनाएँ और पत्र आकर्षित कर रहे थे। आलोचक लेखक जॉन वायेन ने 21.12.59 के ‘न्यू रिपब्लिक’ में लिखा था: “वास्तविक जीवन में श्री नाबोकोव एक प्रसिद्ध लेपिडोपिस्टिस्ट (तितली विशेषज्ञ का वैज्ञानिक नाम) हैं और उन्होंने उनसे एक आदत सीखी है। वे एक सीधी रेखा में उड़ नहीं सकते हैं। तितली के जीवन का उद्देश्य आपके जितना गंभीर हैं, उतना मेरे लिए भी, मगर इसकी सुरक्षात्मक उड़ान को भोलेपन कहकर निंदा की जाती है।” वेन ने नाबोकोव की रचनाओं की भाषा-शैली में बहु-रैखिक (रैखिक नहीं) और वक्र-रैखिक गतिशीलता को निश्चय देखा होगा, तभी ऐसी टिप्पणी दी है।
5 जुलाई, 1977 को नाबोकोव के निधन पर ‘टाइम्स’ में आया था,
“उनकी मुख्य आवर्ती कथावस्तु मनुष्य का विषय है, जो अपने पर्यावरण से अलग होकर संतुष्टि प्राप्त करता है, वास्तविक प्रसन्नता के रूप में, किसी दृढ़ खोज में, चाहे वह कला हो, शतरंज हो, साहसिक यौनता या आश्चर्य की बात क्यों न हो . . .।” शायद नीले रंग की तितली इस आनंद की आख़िरी खोज थी, “आश्चर्य की क्षणिक प्रस्तुति।”
नाबोकोव हार्वर्ड में क्रेगि सर्कल के अलावा 9 नंबर चंसी स्ट्रीट में भी रहे थे। 9 नंबर चंसी स्ट्रीट मेरे 7 कॉनकॉर्ड एवेन्यू के निवास से पाँच मिनट की पैदल दूरी पर थी। मैं अक़्सर वहाँ अपने दोस्त विजय मिश्रा से मिलने जाता था।
नाबोकोव ने सन् 1945 में हार्वर्ड से अपनी बहन ऐलेना सिकारोस्की के नाम कई पत्र लिखे थे। पत्रों के क्रमांक भी लिखे गए थे। 26 वें पत्र का एक अंश उनकी भाषा में: “प्रिय ऐलेना, तुमने मुझे अपनी दिनचर्या के बारे में पूछा। मैं आठ या आठ बजे के आस-पास जागता हूँ, और हमेशा एक आवाज़ सुनकर जैसे मित्युशेंका (नाबोकोव का पुत्र) बाथरूम जा रहा हो। कहीं स्कूल के लिए देर न हो जाए, सोचकर वह विषादग्रस्त हो जाता है। 8:40 बजे स्कूल बस उसे मोड़ से उठा लेती है। वेरा (नाबोकोव की पत्नी) और मैं खिड़की से उसे जाते हुए देखते हैं। वह मोड़ पर इधर-उधर देखता है, बहुत दुबला-पतला लग रहा है, धूसर सूट पहन रखा है। सिर पर लाल जॉकी कैप और कंधे पर झूल रहा है नीले रंग का स्कूली बैग। लगभग नौ-साढ़े नौ बजे मैं भी अपने दोपहर का भोजन (दूध फ़्लास्क और दो सैंडविच) लेकर बाहर निकल जाता हूँ। पंद्रह मिनट में संग्रहालय आता है (हम हार्वर्ड के उपनगर में रहते हैं), फिर विश्वविद्यालय टेनिस कोर्ट . . . फिर मेरे संग्रहालय में—पूरे अमेरिका में प्रसिद्ध (और जैसा यूरोप में हुआ करता था) म्यूज़ियम ऑफ़ कम्पेरेटिव जूलॉजी, हार्वर्ड विश्वविद्यालय का वह हिस्सा, जो मेरा नियोक्ता है। मेरी प्रयोगशाला 4वीं मंज़िल के आधे हिस्से में फैली है। इसमें से ज़्यादातर तितलियों की स्लाइडिंग अलमारियों की पंक्तियाँ हैं। मैं इस शानदार संग्रह का संरक्षक हूँ। हमारे पास सन् 1840 से आज तक की दुनिया भर की तितलियाँ हैं। मैं अपना व्यक्तिगत शोध कर रहा हूँ, और दो साल से अधिक समय के अमेरिकी ‘ब्लूज़’ पर मेरा काम टुकडों-टुकड़ों में प्रकाशित हुआ है, मुझे काम करने में मज़ा आ रहा है, लेकिन मैं पूरी तरह से थक जा रहा हूँ। मेरी आँखें ख़राब हो गई हैं और मैंने मोटे-मोटे नंबर वाले चश्मे पहन लिए हैं।”
उसके बाद उन्होंने लिखा, “माइक्रोस्कोप के चमत्कारिक क्रिस्टलीय दुनिया में, जहाँ नीरवता का राज्य है, अपने ही क्षितिज से घिरे, एक अँधेरे सफ़ेद में।”
“रॉकी पर्वत में हमारी यात्रा के दौरान यूटा (नाबोकोव के बेटे) मेरे साथ शिकार पर चलता है, मगर उसके पास तितलियों के प्रति कोई जुनून नहीं है।”
“लगभग पाँच बजे सर्दी के नीले अँधेरे से पहले मैं घर आ जाता हूँ, शाम के अख़बार पढ़ने के समय। स्कूल से मित्युशेंका (नाबोकोव के बेटे) भी इसी समय घर आता है।”
नाबोकोव के बारे में दो और पंक्तियाँ। उन्होंने स्विट्ज़रलैंड से दो पत्र लिखे थे। पहला, 6 जनवरी, 1969 को अपने मित्र फ्रैंक टेलर को लिखा था और दूसरा, 15 अप्रैल, 1975 को अपनी पत्नी वेरा को (अपनी मृत्यु से दो साल पहले)। उन्होंने पहले पत्र के पहले पेज पर तितली का स्केच बनाया था और दूसरे पत्र के अंत में, जो दूसरे प्रकार की तितली थी।
पुस्तक की विषय सूची
- आमुख
- अनुवादक की क़लम से . . .
- हार्वर्ड: चार सदी पुराना सारस्वत मंदिर
- केंब्रिज शहर और हार्वर्ड: इतिहास एवं वर्तमान
- हार्वर्ड के चारों तरफ़ ऐतिहासिक बोस्टन नगरी
- ऐतिहासिक बोस्टन तथा उसके उत्तरांचल वासी
- हमारा सेंटर (सिफा): चार्ल्स नदी, कॉनकॉर्ड ऐवन्यू
- हार्वर्ड में पहला क़दम: अकेलेपन के वे दिन
- विश्वविद्यालय की वार्षिक व्याख्यान-माला
- पुनश्च ओक्टेविओ, पुनश्च कविता और वास्तुकला की जुगलबंदी
- कार्लो फुएंटेस–अजन्मा क्रिस्टोफर
- नाबोकोव और नीली तितली
- जॉन केनेथ गालब्रेथ: सामूहिक दारिद्रय का स्वरूप और धनाढ्य समाज
- अमर्त्य सेन: कल्याण विकास अर्थशास्त्र के नए क्षितिज और स्टीव मार्गलिन
- सिआमस हिनि, थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर, चिनुआ आचिबि और जोसेफ ब्रोडस्की
- अमेरिका की स्वतंत्रता की प्रसवशाला—कॉनकॉर्ड
- अमेरिका के दर्शन, साहित्य और संस्कृति की प्रसवशाला-कॉनकॉर्ड
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण (भाग-दो)
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण: काव्य-पाठ एवं व्याख्यान
- हार्वर्ड से एक और भ्रमण: मेक्सिको
- न्यूयार्क में फिर एक बार, नववर्ष 1988 का स्वागत
- हार्वर्ड प्रवास के अंतिम दिन
- परिशिष्ट
लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें
लेखक की अन्य कृतियाँ
साहित्यिक आलेख
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
पुस्तक समीक्षा
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- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
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बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
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