स्मृतियों में हार्वर्ड
न्यूयार्क में फिर एक बार, नववर्ष 1988 का स्वागत
हार्वर्ड के सिफ़ा सेंटर में एकवर्षीय प्रवास के दौरान अमेरिका सरकार के निमंत्रण पर हमारे लिए दो सप्ताह की वहाँ के विभिन्न स्थानों के परिदर्शन की व्यवस्था की गई थी। 9 जनवरी, 1988 को हमने हार्वर्ड छोड़ा था और 25 जनवरी को हम वापस यहाँ पहुँच गए। हमारे प्रस्थान से दो दिन पहले अर्थात् 7 जनवरी को मैं न्यूयार्क से हार्वर्ड लौट आया था। नया वर्ष मनाने के लिए कृष्ण फूफाजी ने मुझे न्यूयार्क में अपने घर आमंत्रित किया था। कृष्ण फूफाजी अमेरिका में ओड़िशा की पहली पीढ़ी के थे। वह प्रसिद्ध पशु-चिकित्सक थे। अमेरिका के विश्वविद्यालय से उन्होंने डॉक्टरेट किया था। उनका घर ओड़िया लोगों के लिए परिचित स्थान था। हार्वर्ड आने से पहले ओड़िशा के मुख्य सचिव के। राममूर्ति ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान उनसे मुलाक़ात की थी और उनके घर एक दिन ठहरे भी थे। यह बात मुझे राममूर्ति ने ख़ुद बताई थी। इसके अलावा, कई डॉक्टर, प्रोफ़ेसर, राजनेता न्यूयार्क जाते समय या तो उनके घर पर रुकते थे, या फिर उनसे कम से कम मुलाक़ात करते थे। कृष्ण फूफा जी बहुत ही लोकप्रिय व्यक्ति थे, इसलिए नए साल का जश्न मनाने के लिए उनके घर में बहुत भीड़ होती थी। रात के 9 बजे से लॉन्ग आइलेंड, क्वीन्स, मैनहट्टान सभी जगहों से कम से कम 12 परिवार उनके घर पहुँचते थे। मुझे ख़ास तौर पर याद है डॉक्टर रायचौधरी और उनकी पत्नी। बाद में डॉक्टर रायचौधरी ने भुवनेश्वर के कलिंग हॉस्पिटल के निर्माण में मुख्य भूमिका अदा की। बीच में फोन आया भुवनेश्वर से, मेरी पत्नी और बच्चों का, 12 बजने से बहुत पहले। नए वर्ष के स्वागत में टेलिफोन लाइन व्यस्त हो जाती थी। मेरे बेटे मुनु ने पहले फोन किया, मगर कट गया। फिर फोन आया, फिर कट गया। जो भी हो मुझे सभी के कुशल-क्षेम की ख़बर मिली। वहाँ तो नया वर्ष बहुत पहले ही आ गया था। उन्होंने भुवनेश्वर में श्री गोपीनाथ मोहंती के घर नया साल मनाया था। मुझे आज भी याद है हर साल भुवनेश्वर में रहते समय हम सभी मिलकर धौलीगिरि जाते थे, वर्ष के अंतिम सूर्य को अलविदा कहने के लिए। ठीक 12 बजे हम सभी मिलकर गोपी मामा और मामी को चरण-स्पर्श करते थे और वे दोनों हमारे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते थे, मुँह में रसगुल्ला खिलाते थे।
कृष्ण फूफाजी के मैनहट्टन वाले घर में यह सारी स्मृतियाँ अचानक मन में हिलोरें खाने लगी। धौलीगिरि का शांति-स्तूप, सीढ़ी पर बैठना, चारों तरफ़ धान के खेत, दयानदी के उस पार वरुणेई पहाड़ के पीछे डूबते सूरज को देखना, शाम के अँधेरे में धौलीगीरी के इतिहास के बारे में गोपी मामा से सुनना सब-कुछ याद आने लगा। घर के बच्चों ने, मामा-मामी के परिवार के सभी लोगों ने नए वर्ष की शुभेच्छा भेज दी थी। हार्वर्ड से न्यूयार्क आने से पहले ही ये सारी शुभकामनाएँ मेरे पास पहुँच गई थी।
जो भी हो, इस बार न्यूयॉर्क में मेरा नया साल 1988 मनाने का संयोग था। हम टेलीविज़न पर ‘टाइम्स स्क्वायर’ का दृश्य देख रहे थे। दो लाख से ज़्यादा लोग (न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक) वहाँ इकट्ठे हुए थे। ठीक बारह बजे लाल रंग का सेब ‘टाइम्स स्क्वायर’ के ऊँचे टॉवर से नीचे आया था। टीवी पर वहाँ इकट्ठे हुए लोगों का उत्साह और उत्तेजना साफ़ देखी जा सकती थी। एक-दूसरे को गले लगाना, एक-दूसरे पर पानी डालना, एक–दूसरे के चेहरे पर बर्फ़ मलने के दृश्य टीवी में दिखाई दे रहे थे। होटल वाल्डोर्फ एस्टोरिया के लाऊँज में तीन संगीत कार्यक्रम चल रहे थे। पहला था—एक प्रसिद्ध अमेरिकी गायिका का (जहाँ तक मुझे याद है, वह मिस बेटल थी) जो नया साल का स्वागत गीत गा रही थीं। उस गीत के बोल, धुन और संगीत उत्कृष्ट थे। उसके बाद ज़ुबिन मेहता का ऑर्केस्ट्रा संगीत और अंत में मैनहट्टन के हारवेन के काले बच्चों का सुंदर समवेत गीत। उन गीतों के स्वर, टाइम्स स्क्वायर पर लोगों का उत्साह, भुवनेश्वर से फोन और मेरी मेज़ पर इकट्ठे हुए चिट्ठी-पत्रों के बीच नया साल आकर पहुँच गया था। ठीक बारह बजे हमने शुभकामनाएँ जताई। फूफाजी का छोटा पुत्र टुकुना (डॉ. आनंद मोहन दास) ने पारंपरिक तरीक़े से नए साल का स्वागत करने के लिए शैंपेन की बोतल खोली। महिलाओं को छोड़कर हम सभी ने थोड़ा-थोड़ा पिया। खाना-पीना पहले से ही हो चुका था। शैंपेन के बाद हमने कुछ मिठाइयाँ खाईं। एक-दूसरे से गपशप चलती रही। डेढ़ बजे सभी ने एक-दूसरे से विदा ली। नया साल डेढ़ घंटा पुराना हो गया था।
इस तरह वर्ष 1987 ने विदा ली। बिस्तर पर सोते-सोते मैंने याद किया कि विगत वर्ष मैंने क्या खोया, क्या पाया। मेरी छोटी बेटी ने दिल्ली से एम.ए. पास किया, मेरे बेटे मुनू को एनटीएस छात्रवृत्ति मिली, बीमार पत्नी को एम्स में इलाज के लिए दस दिन भर्ती कराया—सारी बातें याद आ गईं।
नए साल के पहले दिन फूफा के साथ में बसी देई और मैं उनके बड़े बेटे के घर गए। उनका बड़ा बेटा बुबु भी डॉक्टर था, जो न्यूयॉर्क से लगभग 60 किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर में रहता था। हडसन नदी को पार करते हुए हम ब्रोंक्स (न्यूयॉर्क के पाँच उपनगरों में से एक) में बुबु के घर पहुँचे, वहाँ हमने पूरा दिन बिताया और उनकी गाड़ी में शाम को मैनहट्टन लौट आए। बुबु के घर में दिन शानदार ढंग से बीता। फूफा, बुबु, छोटा बेटा क्रिस और बेटी क्रिस्टिना के लिए अनेक उपहार ख़रीदे। नए वर्ष में बुबु के घर के पीछे विशाल हरे-भरे मैदान में घूमते हुए मैं अपने अतीत को याद कर रहा था। हडसन नदी के किनारे जाकर हम सभी ने थोड़ी देर के लिए वहाँ विश्राम लिया।
मैनहट्टन लौटने के बाद फूफा और फूफी अपना सामान पैक करने लगे। क्योंकि अगले दिन उन्हें ओड़िशा जाना था। फूफा के घर के नज़दीक रेलवे ट्रैक के पीछे एक छोटा-सा सुंदर पार्क था। उस पार्क में तीन ‘वीपिंग विलो’ पेड़ थे, पार्क के बीचों-बीच बने छोटे तालाब में चार-पाँच बतख़ें तैर रही थी। वह पार्क मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था। हार्वर्ड प्रवास के दौरान जब भी मैं मैनहट्टन गया, उस पार्क में अवश्य जाता था, तालाब के पास बैठकर तैरती हुई सुंदर बतखों को देखता था। उस समय पार्क सुनसान रहता था, कोई भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आता था। पार्क की घास पर यहाँ-वहाँ बर्फ़ दिखाई देता था। विलो पेड़ों को छोड़कर, दूसरे पत्रहीन पेड़ श्रीहीन होकर ध्यान-मुद्रा में चुपचाप खड़े थे। मैं पार्क के बेंच पर बैठकर थोड़ी दूर बने घरों की तरफ़ देखने लगा। एक घर का दरवाज़ा खोलकर एक भद्र-महिला और उसका चार-पाँच साल का बेटा बाहर निकला। तभी आस-पास के रेलवे ट्रैक पर एक ट्रेन आ पहुँची। सूर्य की कोमल किरणें सुखद लग रही थी। इतना अच्छा लग रहा था कि मैं उस बेंच पर सोना चाहता था। तीन जनवरी की सुबह हम सभी न्यूयार्क के जैक्सन हाइट पर गए। ओड़िशा ले जाने के लिए मौसा-मौसी कुछ ख़रीदना चाहते थे। उनके हाथ भेजने के लिए बच्चों के लिए कुछ सामान मैंने भी ख़रीदा। हम 5 बजे मौसा और मौसी को छोड़ने के लिए हम सभी भी कैनेडी हवाई अड्डे पर गए। हमने लाऊँज में थोड़ी देर तक बातें कीं, उसके बाद वे हवाई अड्डे के भीतर चले गए। मैनहट्टन से घर लौटते समय थोड़ी-थोड़ी बर्फ़ गिरनी शुरू हो गई थी, फिर धीरे-धीरे अधिक बर्फ़ गिरने लगी। खाना खाने के बाद ऊपरी माले के कमरे में सहजता से नहीं सो पाया था। खिड़की खोलकर हिमपात के दृश्य को देखने लगा। बर्फ़ सफ़ेद होने के बावजूद भी उसमें कुछ नीला अंश था, खिड़की से चारों ओर हिमपात का दृश्य बहुत सुंदर लग रहा था। ऐसा लग रहा था मानो परियों का कोई देश हो। सुबह उठते समय चारों ओर बर्फ़ ही बर्फ़ थीं। बर्फ़ होने के बावजूद भी टुकुना अपनी कार निकालकर केनेडी हवाई अड्डे के पास अपने अस्पताल के लिए रवाना हो गया। कुछ समय बाद बाहर निकलकर हमने पत्रहीन पेड़ों और बर्फ़ पर कुछ तस्वीरें खींचीं। टुकुना की पत्नी रूबी ने अपने कैमरे से और मैंने अपने कैमरे से। पड़ोस के बच्चे बर्फ़ से खेल रहे थे, बर्फ़ की मूर्तियाँ बना रहे थे। पास घर के अठारह-उन्नीस साल के एक युवक ने बीस डॉलर लेकर मौसा के घर के सामने गिरे हुए बर्फ़ को साफ़ किया। एक बार और चाय पीकर मैं उस छोटे सुंदर पार्क में फिर से गया। घास पूरी तरह से बर्फ़ से ढकी हुई थी, तालाब के किनारे से कुछ दूर बर्फ़ जमी हुई थी। मुझे पाँच तारीख़ को हार्वर्ड जाना था। टुकुना और रूबी ने मुझे और दो दिन जबर्दस्ती रोककर सात तारीख़ को जाने के लिए बाध्य किया। उनका तर्क अकाट्य था, “हार्वर्ड तो न्यूयॉर्क की तुलना में बहुत ज़्यादा ठंडा है, अकेले अपार्टमेंट जाने से क्या आपको अच्छा लगेगा?” उनका अनुरोध मैं काट नहीं सका, सात तारीख़ तक मैं वहाँ रुका। मेरे दिन आराम से कट गए, टुकुना का पुत्र अमृत बहुत छोटा था, बहुत बार मैं उसके साथ खेलता रहा। सभी बच्चों को बर्फ़ अच्छा लगती है, उसे भी बर्फ़ अच्छा लगती थी। शायद उस समय उसकी उम्र पाँच साल रही होगी। हम दोनों सामने वाले लॉन के पत्ते रहित पेड़ के नीचे बर्फ़ से खेला करते थे। मैं उसकी फोटो खींचता था। जब वह मेरी गोद में था, रूबी ने हमारी फोटो ले लीं। टुकुना हर सुबह 7:30 बजे अपने अस्पताल के लिए बाहर निकल जाता था और शाम को लगभग 7:30 या 8:00 बजे घर लौटता था। उसने हमारे देखने के लिए अच्छी फ़िल्में लाईं। बीच-बीच में हिमपात होता रहता था। उनके घर में मैंने जितनी फ़िल्में देखी थी, उनमें मुझे याद है कि मैंने ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ ए लेसर गॉड’, ‘फ्रेंच लेफ्टिनेंट’स वाइफ’ (मेरिल स्ट्रीप द्वारा अभिनीत) और क्लासिक फ़िल्म ‘कैसाब्लांका’ (हम्फ्री बोगार्ट और इंग्रिड बर्गमैन द्वारा अभिनीत) फ़िल्में देखी थी। रूबी हमेशा घर के कामों में लगी रहती थी, हमेशा मुस्कुराहता हुआ चेहरा। सभी कपड़े साफ़कर इस्त्री कर मेरे रूम में लाकर रख देती थी वह। अलबामा के बर्मिंघम से दिसंबर 30 उसके घर आने पर उसी तरह मेरे सारे कपड़े साफ़ कर इस्त्री कर रख दिए थे। उसने मेरी छोटी बहन की तरह देखभाल की। अमृत के साथ खेलना, उसकी बड़ी बहन आईरिस (सात साल) को कुछ पढ़ाना, फ़िल्में देखना, संगीत सुनना और बाहर बर्फ़ीले रास्ते पर घूमने जाना-आदि में समय कैसे पार हो जाता था, पता ही नहीं चलता था। आज जनवरी 6 थी, हार्वर्ड में दूसरी बार मेरे कान की जाँच होनी थी। मैंने डॉक्टर से सनत के लिया था। नहीं जाने के कारण मैंने उन्हें फोन पर बता दिया था। आज थोड़ी धूप निकली थी, धीरे-धीरे बर्फ़ कुछ पिघलने लगी थी। मैं किताब पढ़ते, गाने सुनते और चाय-कॉफ़ी पीते अपना समय काट रहा था। शाम को 7 बजे दिलीप का फोन आया। दिलीप हरिचंदन ने नव मौसा के सबसे छोटे दामाद थे, मॉन्ट्रियल में रहते थे और आईबीएम में काम करते थे। उनकी पत्नी अशोका मैक्गिल विश्वविद्यालय में काम करती थी। वह अकेले-अकेले ओड़िशा चले गए थे; अशोका उनके साथ नहीं जा पाई थी। दिलीप ने कैनेडी हवाई अड्डे से कहा, मॉन्ट्रियल के लिए वह अपनी फ़्लाइट नहीं पकड़ पाया, देर होने के कारण। वह टुकुना के घर पहुँचे, हमने देर रात तक बातें कीं। दिलीप से मुझे पता चला, मौसी और नहीं रही। 4 तारीख़ 11 बजे उनका स्वर्गवास हो गया था। दिलीप ने कहा—मौसी ने, उनका अंतिम संस्कार कैसे होगा, के बारे में स्पष्ट निर्देश दिए थे। उसी के अनुसार शुद्धिक्रिया होगी। उसने मेरी बड़ी बेटी ‘जितू’ की शादी के बारे में पूछा, मेरे बेटे मुनू जिसे वह बहुत प्यार करते थे, की पढ़ाई के बारे में पूछताछ की। मैं 7 तारीख़ को बोस्टन लौटा और दिलीप मॉन्ट्रियल। हम दोनों को छोड़ने के लिए टुकुना लागार्डिया हवाई अड्डे तक आए थे।
बहुत दिनों के बाद मैं हार्वर्ड लौटा। दिगंबर के निमंत्रण पर 12 दिसंबर को मैं बर्मिंघम गया। लुसियाना से सुर रथ आए थे, दिगंबर की पत्नी ज्योत्स्ना और दिगंबर, सुर और उनकी पत्नी मंजू और मैं कार से फ़्लोरिडा घूमने गए। हमने फ़्लोरिडा में क्रिसमस मनाया। उसके एक दिन बाद मैं न्यू ऑरलियन्स गया और 30 दिसंबर को बर्मिंघम से न्यूयॉर्क में फूफा के घर आया, इस प्रकार हार्वर्ड से लंबी अनुपस्थिति के कारण सेंटर और मेरे अपार्टमेंट में पत्रों का ढेर लग गया था। दोस्तों से पता चला कि 4-5 दिसंबर को भारी बर्फ़बारी हुई थी। उसके बावजूद मैं यूनिवर्सिटी के अस्पताल में मेरे निर्दिष्ट डॉक्टर कस्तूरी नागरजन से मिलने गया। उनके सचिव से विगत रात उनकी मृत्यु की ख़बर मिली। सेंटर से पत्र लेकर मैं अपार्टमेंट में वापस आ गया। मैंने हार्वर्ड स्क्वायर में मैक्सिकन रेस्तरां में कुछ खा लिया, क्योंकि अपार्टमेंट में खाना बनाने का मन नहीं कर रहा था। एक और दर्दनाक ख़बर पत्र बॉक्स में मेरा इंतज़ार कर रही थी। बीजिंग से चीनी साहित्य के मेरे परिचित प्रोफ़ेसर के नाम लिखा हुआ मेरा पत्र लौट आया था। उनका भी निधन हो गया था।
दिन के एक बजे धीरे-धीरे हिमपात बढ़ने लगा, और फिर बर्फ़ीली आँधी आना शुरू हो गई। मेरे मन में संदेह होने लगा कि आगामी 25 जनवरी तक हमारी लंबी यात्रा शुरू होने वाली थी, बर्फ़बारी के कारण वह हो भी पाएगी या नहीं! उन सारे पत्रों में एक पत्र था, मैक्सिको में हमारे राजदूत के.टी. सतारावाला का। वह चाहते थे कि मैं शीघ्र मैक्सिको जाऊँ, क्योंकि एक महीने के अंदर-अंदर उन्हें भारत लौटना था। मैंने उनसे बात की और अपनी समस्याओं के बारे में बताया। उस दिन सेंटर से मेरे अपार्टमेंट लौटते समय बर्फ़ीली हवाएँ चल रही थीं, अपार्टमेंट लौटकर गर्म सूप पीकर थोड़े समय के लिए टीवी देखने लगा। किशोरी आमोनकर के गीत सुने। मेरे छठे मंज़िलें अपार्टमेंट की खिड़की से लगातार बर्फ़बारी दिखाई दे रही थी। टेलीविज़न में समग्र मैसाचुसेट्स प्रदेश में बर्फ़बारी की ख़बर दिखाई जा रही थी। मुझे लगा कि दूसरी जगहों से जब भी मैं बोस्टन लौटता हूँ, बर्फ़बारी मेरा इंतज़ार करते हुए नज़र आती है। 13 नवंबर को भी ऐसा हुआ था, अब जनवरी में भी ऐसा ही है, अठारह दिनों की यात्रा के बाद 25 जनवरी को लौटने पर भी ऐसा ही था।
पुस्तक की विषय सूची
- आमुख
- अनुवादक की क़लम से . . .
- हार्वर्ड: चार सदी पुराना सारस्वत मंदिर
- केंब्रिज शहर और हार्वर्ड: इतिहास एवं वर्तमान
- हार्वर्ड के चारों तरफ़ ऐतिहासिक बोस्टन नगरी
- ऐतिहासिक बोस्टन तथा उसके उत्तरांचल वासी
- हमारा सेंटर (सिफा): चार्ल्स नदी, कॉनकॉर्ड ऐवन्यू
- हार्वर्ड में पहला क़दम: अकेलेपन के वे दिन
- विश्वविद्यालय की वार्षिक व्याख्यान-माला
- पुनश्च ओक्टेविओ, पुनश्च कविता और वास्तुकला की जुगलबंदी
- कार्लो फुएंटेस–अजन्मा क्रिस्टोफर
- नाबोकोव और नीली तितली
- जॉन केनेथ गालब्रेथ: सामूहिक दारिद्रय का स्वरूप और धनाढ्य समाज
- अमर्त्य सेन: कल्याण विकास अर्थशास्त्र के नए क्षितिज और स्टीव मार्गलिन
- सिआमस हिनि, थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर, चिनुआ आचिबि और जोसेफ ब्रोडस्की
- अमेरिका की स्वतंत्रता की प्रसवशाला—कॉनकॉर्ड
- अमेरिका के दर्शन, साहित्य और संस्कृति की प्रसवशाला-कॉनकॉर्ड
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण (भाग-दो)
- हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण: काव्य-पाठ एवं व्याख्यान
- हार्वर्ड से एक और भ्रमण: मेक्सिको
- न्यूयार्क में फिर एक बार, नववर्ष 1988 का स्वागत
- हार्वर्ड प्रवास के अंतिम दिन
- परिशिष्ट
लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें
लेखक की अन्य कृतियाँ
साहित्यिक आलेख
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
पुस्तक समीक्षा
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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