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दिल से ग़ज़ल तक

दिल से ग़ज़ल तकः एक सन्दर्भ

 

किसी घटना क्रम का साक्षी होकर या एक अविस्मरणीय दृश्य को देख कर प्रत्येक सम्वेदनशील व्यक्ति के मन पर एक विशिष्ट प्रतिक्रिया होती है। इसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही रचनाकार विभिन्न कलाओं में प्रवृत्त होता है तथा उसकी कला विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में प्रस्फुटित होती है। एक रचनाकार की सम्वेदना चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्यक‌ला, नाट्‌यकला, संगीत आदि के माध्यम से हमारे समक्ष आती है। इसी प्रकार गद्य और पद्म का लेखन भी सम्वेदना का ही प्रतिफलन है।

प्रस्तुत आलेख में प्रसिद्ध एवम् प्रतिष्ठित कवयित्री सुश्री देवी नागरानी की ग़ज़लें मेरी बात-चीत के केन्द्र में हैं।

सुश्री देवी नागरानी हिन्दी साहित्य का एक प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित और पाठकों के लिये जाना-पहचाना नाम है! ग़ज़ल कहते समय सुश्री देवी नागरानी अपने “दिल से ग़ज़ल तक” का सफ़र करती हैं तथा इसी तथ्य को अपने एक शे’र में उजागर करती हुई कहती हैं:

“सफ़र तय किया यारो दिल से ग़ज़‌ल तक
चला सिलसिला यारो दिल से ग़ज़ल तक”

अपने कर्तृत्व में कवियित्री ठह‌राव के प्रति आश्वस्त नहीं हैं, ‘चरैवेति-चरैवेति’ के सिद्धांत का वे न केवल अनुशीलन करती हैं अपितु मचलती हुई नदी के सदृश वो एक नैरंतर्य की पक्षधर भी हैं। तभी तो वो कह रही हैं:

“ठहराव का न था जहाँ नामो-निशाँ वहीं
अलबेली इक मचलती नदी सी लगी ग़ज़ल”

कोई भी जब अपनी यात्रा पर निकलता है तो उसे अपने गन्तव्य का पता होता है और होना भी चाहिए क्योंकि यदि गन्तव्य का ही पता नहीं है तो राहगीर को सिवाय भटकन के और कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।

देवी नागरानी नदी का मानवीकरण करती हुई कुछ इस प्रकार से अपने उद्‌गारों को एक शे’र के पैकर में ढालती हैं:

“मंजिल मिलेगी कब उसको न था पता
‘देवी’ मुसाफ़िरों सी भटकती रही ग़ज़ल”

कवियित्री का विश्वास ज़िन्दगी के विरुद्ध नहीं अपितु ज़िन्दगी के चलने में है। उनकी मान्यता है कि सफ़र में तो मज़ा कम है अपितु अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेने में जो आनन्द है वह अप्रतिम है! प्रस्तुत शे’र में कवयित्री ने इसी भाव को उकेरने का प्रयास किया है:

“हम क़दम हो कर चलो तुम ज़िन्दगी के साथ-साथ
है मज़ा कुछ कम सफ़र में पर बहुत मंज़िल में है”

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि जिनके बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते! कुछ लोग इतने विशिष्ट होते हैं कि उनके बग़ैर हम स्वयम् को अधूरा महसूस करते हैं! प्रस्तुत शे’र में वे स्पष्टतः कहती हैं कि किसी बेवफ़ा के साथ वफ़ादारी करते रहना सम्भव ही नहीं है! अपने इसी भाव को उन्होंने मतले के शे’र में बख़ूबी पिरोया है:

“ज़िन्द‌गी करना बसर उसके सिवा मुश्किल मगर
बेवफ़ा से करते रहना है वफ़ा मुश्किल मगर”

आज के दौर में अपनी ठीक बात को लोगों तक पहुँचाना लगभग असंभव है! हम लाख कोशिश करें, चीखें-चिल्लाएँ परन्तु कुछ वहशी लोग हमेशा इस जुस्तजू में रहते हैं कि न्याय-संगत बात लोगों तक न पहुँचे। आप कितना ही अपने जीवित लोग होने का प्रमाण दें किन्तु कुछ लोग जो समाज के ठेकेदार हैं वो अन्ततः आपकी आवाज़ का गला घोंट देंगे तथा आप की पुकार को वहाँ नहीं पहुँचने देंगे जहाँ उसे पहुँचना चाहिए! प्रस्तुत शेर में देखिए, वो किस तरह अपनी इसी पीड़ा को मुखर करती हुई नज़र आती हैं:

“मैं ज़िंदा हूँ ज़िंदा हूँ चीख़ा बहुत वो
दरिंदों ने आवाज़ दफ़ना दी उसकी”

अंग्रेज़ी की एक कहावत है, “Guilty conscience pricks the mind.” अर्थात् कोई व्यक्ति जब अपराध करता है तो वह अपराध-बोध से कभी मुक्त हो ही नहीं सकता तथा यह ध्रुव सत्य है कि धोखे से प्रहार करने वाला व्यक्ति कभी सीना तान कर चल ही नहीं सकता। इसी कहावत के निहितार्थ को कवयित्री जब अपने शे’र में बुनती हैं तो उनकी भाषा कुछ इस प्रकार की होती है:

“किया पीठ पर वार जिसने भी हम पर
थी उसकी हमेशा क्यों गर्दन झुकी सी”

समय जो एक बार बीत गया वो कभी लौट कर आ ही नहीं सकता! हम कितना भी प्रयास करें हमारा बचपन कभी वापस नहीं आता।

बचपन में हम निर्द्वन्द, निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं। उसी बचपन को याद करती हुई देवी नागरानी अपने भाव को पाठकों तक पहुँचाने के लिये इस प्रकार कह रही हैं:

“वो दिन भी क्या दिन थे। बीत गये कल जो
पकड़ने को तितली उड़ा करती थी ‘देवी’”

एक प्रसिद्ध कहावत है कि मूल से ब्याज प्यारा होता है। मूल अर्थात् मूलधन! एक साहुकार जब पैसा, ब्याज पर किसी को उधार देता है तो वह चाहता है कि उसे ब्याज निरंतर मिलता रहे, उसे मूलधन से अधिक व्याज की चिन्ता रहती है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए, एक दादी अपने बच्चों के बच्चों को याद करती हुई अपनी पीड़ा को इस प्रकार प्रकट करती है:

“कहाँ हैं गये सारे बच्चों के बच्चे
बड़े प्यार से जो थे आकर लिपटते”

“वो जो आते ही घर में लगाते थे नारे
लगी भूख दादी तू खाने को कुछ दे”

“कहाँ गुम हुई हैं वे आवाज़ें ‘देवी'
जो सुनने को ये कान अब हैं तरसते”

व्यक्ति जिसे प्यार करता है उसके दुख-दर्द को महसूस करता है। जब किसी अपने के ऊपर कोई ख़तरा है तो हमें ख़तरे के कारण पर क्रोध आता ही है। इसी स्थिति को लक्ष्य करता हुआ उनका यह शे’र देखें:

“ख़तरे में देख अपनों को आया उबाल जब
तब ख़ून अपना पानी समझ कर बहा दिया”

संस्कृत में एक कहावत है, “अहो! कामी स्वतां पश्यति” अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपने अनुसार या अपने ही नज़रिये से संसार को देखता है!

देवी नागरानी भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं हैं! इसी लिए वो इस तरह कहती हैं:

“मेरे भीतर जो मुझसा बैठा है
मुझको बाहर नज़र नहीं आता”

कई बार मनुष्य के समक्ष ऐसी स्थिति आती है, कि वह वो देख ही नहीं पाता है जो उसकी आँखों के सामने है। इस मायावी संसार में होता कुछ और है दिखाई कुछ और देता है—या कुछ भी नहीं दीखता:

“आँखें ‘देवी’ खुली खुली हैं मगर
कुछ-भी क्यों कर नज़र नहीं आता”

हम जैसा सोचते हैं, अक्सर वैसा नहीं हो पाता है। हमारे प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है| हम जो सपने देखते हैं वो सभी सच नहीं हो पाते हैं; बावजूद इसके कवयित्री प्रयासरत रहती है तथा मरुस्थल को हरा-भरा करने की जुस्तजू में वो बीजारोपण करती रहती है! इसी भाव को नागरानी जी ने इस शे’र में इस तरह पिरोया है:

“सींच पायी न सपनों को ‘देवी’ कभी
बीज सहरा में फिर भी वो बोती रही”

कवयित्री की चिन्ता है कि पीढ़ियाँ दर-बदर हो रही हैं तथा एक भ्रम की स्थिति है। आज की संतति को ‘घर’ का वातावरण प्राप्त नहीं हो पा रहा है, ‘घर’ किसी विशाल बिल्डिंग का नाम नहीं है अपितु ‘घर’ एक वातावरण का नाम है तथा जिसे किसी विशाल इमारत की आवश्यकता ही नहीं है! ‘घर’ एक झोंपड़ी में भी हो सकता है:

“आजकल हो रहीं दर बदर पीढ़ियाँ
घर बने ही नहीं वो बस हैं मकाँ”

देवी नागरानी जी को ग़ज़लें कहते हुए एक अरसा हो गया है। आज वो एक वरिष्ठ ग़ज़लकार के रूप हमारे बीच है यह हमारा सौभाग्य है। नये ग़ज़लकारों को चाहिए कि इस विशिष्ट और वरिष्ठ शायरा की ग़ज़लों को पढ़ें। आप अधिकतर विदेश में रहती हैं किन्तु भारत से इस कवियित्री का प्रगाढ़ रिश्ता है। प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह के लिये मेरी शुभकामनाएँ हैं, मुझे विश्वास है प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़लों को पाठकों द्वारा सराहा जाएगा।

“शुभास्ते सन्तु पन्थानः”

— विज्ञान व्रत
 

पुस्तक की विषय सूची

  1. समर्पण
  2. दिल से ग़ज़ल तकः एक सन्दर्भ
  3. एक ख़ुशगवार सफ़र-दिल से ग़ज़ल तक
  4. दिल से ग़ज़ल तक अज़, देवी नागरानी
  5. मेरी ओर से—दिल से ग़ज़ल तक
  6. 1. सफ़र तय किया यारो दिल से ग़ज़ल तक
  7. 2. सागर के तट पे आते ही जिसने रची ग़ज़ल
  8. 3. सुन सको तो सुन लो उनकी दर्द जिनके दिल में है
  9. 4. न जाने क्यों हुई है आज मेरी आंख कुछ यूँ नम
  10. 5. ज़िन्दगी करना बसर उसके सिवा मुश्किल मगर 
  11. 6. ग़लत फ़हमी की ईंट छोटी थी फिर भी
  12. 7. माफ़ कैसे गुनह हुआ यारो
  13. 8. इल्म होगा उसको फिर तन्हाइयों का
  14. 9. हमसफ़र बिन है सफ़र ये जाने मंज़िल है कहाँ
  15. 10. ग़म कतारों में खड़े बाहर, मैं भीतर था निहाँ
क्रमशः

लेखक की पुस्तकें

  1. दिल से ग़ज़ल तक
  2. भीतर से मैं कितनी खाली
  3. ऐसा भी होता है
  4. और गंगा बहती रही
  5. चराग़े दिल
  6. दरिया–ए–दिल
  7. एक थका हुआ सच
  8. लौ दर्दे दिल की
  9. पंद्रह सिंधी कहानियाँ
  10. परछाईयों का जंगल
  11. प्रांत प्रांत की कहानियाँ
  12. माटी कहे कुम्भार से
  13. दरिया–ए–दिल
  14. पंद्रह सिंधी कहानियाँ
  15. एक थका हुआ सच
  16. प्रांत-प्रांत की कहानियाँ
  17. चराग़े-दिल

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. एक थका हुआ सच

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