अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आज की मधुशाला 

तुझे देख देख सोना
तुझे देख कर ही जगना, 
तुझे देख कर ही
भोजन के फाँक फाँक चखना। 
जब से मिला तेरा चतुर अवतार, 
जीवन में आयी मानो डोपामिन की बहार, 
तुझसे ही मिला यह विशेष समाचार
मेरे अनुयायी करोड़ 
और चाहने वाले हज़ार। 
गर्दन झुकी उँगलियाँ व्यस्त
आँखें चौंधियाई मन मदमस्त, 
निरंतर संपर्क की ललक ज़बरदस्त, 
एक तिहाई दिनांश
मात्र चुटकी में ध्वस्त। 
बिन सूई बिन धागा 
मैंने ही पिरोयी
यह तृष्णा की माला, 
बिन उम्र की रेखा 
मैंने ही सजाई 
यह आज की मधुशाला। 


तो क्या हुआ कि 
है रीढ़ सम्बन्धी कुरूपता 
भारकेंद्र आगे को झुकता, 
कंधे अतिसख़्त 
मानो उन पर बैठा
कोई आठ वर्षीय बालक, 
डिस्क को स्पर्शती नस नस
अंग अंग में खिंचाव शूल दर्द, 
स्पोंडिलाइसिस साँस की विरलता
उँगलियाँ सुन्न कोहनी क्लिष्ट, 
कभी दर्दनिवारक तो कभी शल्यचिकित्सा। 
पर डरें वह मेरी निष्कलंक तस्वीर पर 
अँगूठा न दिखाने वाले दुश्मन
मेरा शारीरिक स्वास्थ्य तो है नम्बर वन, 
क्योंकि मैं तो युवा हूँ जवां हूँ 
अब तक नशे में कहाँ हूँ। 
 
तो क्या हुआ कि 
है नोमोफोबिआ का आक्रमण 
बेचैनी जुनूनी चिड़चिड़ापन 
सीने में तीव्र गरमाहट, 
करोड़ों वाहवाहियों के बीच
एक नकार की खटक, 
प्रयोग के दौरान अनंत आनंद 
तत्पश्चात मन की थकावट, 
असीमित स्तर
अनंतता का भोग, 
फिर भी अविजयी सा भाव
आतंरिक रिक्तता का रोग। 
पर डरें वह तीखी टिपण्णी करने वाले दुश्मन 
मेरा मानसिक स्वास्थ्य तो है नम्बर वन, 
क्योंकि मैं तो युवा हूँ जवां हूँ 
अब तक नशे में कहाँ हूँ। 
 
तो क्या हुआ कि 
है अतिसक्रियता वाकविकार 
मिरगी आनाकानी
ध्यानाभाव का विस्तार, 
निर्बल होता आत्मसम्मान
दुर्बल होते सामाजिक सम्बन्ध
बढ़ती हुई अनिद्रा, 
घटती हुई संज्ञानात्मक क्षमता, 
तुलना के चलन में 
प्रकृति से परे आत्मज्ञान से दूर, 
मृगतृष्णा सी दौड़ में 
अभाव की बढ़ती हुई भावना से मजबूर। 
पर डरें वह आए दिन 
विश्व भ्रमण करने वाले दुश्मन, 
मेरे तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क तो हैं नम्बर वन, 
क्योंकि मैं तो युवा हूँ जवां हूँ 
अब तक नशे में कहाँ हूँ।

 
चलो माना हो नशे से दूर
अपनी सोशल मंडली में सबसे मशहूर, 
अधिकार से चलाते
यह समकोणी अलंकार, 
क्या जाना है 
इसे चला रही एक धुरंधरी सरकार? 
हैं भरे पड़े 
मनोवैज्ञानिक
भव्य संगणक विशेषज्ञ
और कैसिनो वाले ध्यान अभियंत्रक। 
तेरी रुचियों को
जितना नहीं जाने तेरा परिवार, 
क्षण में दिखा देती
कृत्रिम बुद्धिमता
अरबों के आँकड़ों से जन्मी 
यह संस्तुति की क़तार। 
यह सोशल मीडिया महकायों
संग विज्ञापकों के सम्बन्ध
है तुझसे कई गुना 
अधिक अक़्लमंद अधिक समझदार, 
तुझे व्यसनी बनाये रखना ही 
इनका प्रमुख ध्येय प्रमुख व्यापार। 
 
चलो माना हो नशे से दूर
अपनी सोशल मंडली में सबसे मशहूर। 
जितने कस के थामे हो यह 
हथकड़ी सी मशीन, 
उतने रस से समझ लो 
निहित रसायन रंगीन। 
काली रात में नीली ज्योति का दिन
रोक देता है निद्राप्रेरक मेलाटोनिन, 
वह बढ़ती हुई ईर्ष्या के तोल मोल 
जन जाते हैं हानिकारक कोर्टिसोल। 
आज है तुरंत संतुष्टि की लत
निरंतर आनंद की आरज़ू, 
पर जन्मजात आता तुम्हें
भंग करना यह डोपामिन का चक्रव्यूह, 
क्या पुनः पाना है 
स्वास्तित्व आतंरिक मान्यता
असली स्पर्श असली सम्बन्ध? 
क्या पुनः कमाना है 
चिरकालिक संतुष्टि
ब्रह्माण्ड हेतु कृतज्ञता का भाव? 
यदि हाँ, तो बस चलाना होगा 
ऑक्सीटोसिन-सेरोटोनिन का रामबाण, 
बनानी होगी मधुशाला के बीचों-बीच
एक कमलमय मीनार। 
 
तो कांधों की रेखा में
सजगता से रख यह नेत्र, 
सचेतन स्वीकारो कि हो
तुम व्यसनी नंबर एक। 
यदि सत्य में 
त्याग सको यह नित्य नकार, 
मानना स्वयं को
एक वर्चस अवतार। 
ईश्वर प्रदत्त पृथक गुण कौशल
प्रकृति प्रदत्त कितने उपहार, 
है अब तक अप्रयुक्त 
तंत्रिकोशिकाओं से रचा
एक मस्तिष्क ढलनदार, 
जिस छोर को ढूँढ़ा
हर अंतरजाल हर संजाल
तेरे भीतर ही कहीं है, 
नशे में तो नरक था
असली जीवन असली स्वर्ग
बस यहीं है यहीं है यहीं है। 

 

सन्दर्भ: “Caught in the web” वेब सीरीज़, संदीप महेश्वरी, https://www.youtube.com/watch? v=ZyBzECeeydY

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं