चुप रहना
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
इस दिवाली है डाली
एक अलग सी रंगोली,
सारे शहर ने बनाई
हरी-नीली मोरनी,
कर कान्हा किसली की कल्पना
मैंने बना डाली
एक काली-पीली शेरनी।
पर जब भरने बैठी
जिह्वा में रंग गुलाल,
काँपने लगे हाथ-पाँव
मैं लज्जा से
मेरी श्वेत कुर्ती लहू से हुई लाल लाल।
माँ! क्या हुआ है मुझे
क्यों हुआ यह हाल बेहाल?
मत मचा इतना शोर
थोड़ा धीमे-धीमे बोल,
बस इतना समझ ले
यह रक्त नहींं अमान्य पानी है
हर सयानी होती बालिका की
यही अभिन्न मासिक कहानी है।
मेरी रचनात्मक रानी!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
आज है मेरे छात्रजीवन का
सबसे बड़ा इम्तिहान,
सुना है केवल इस पर निर्भर
आजीविका की बुनियाद,
और आज ही है भयानक कमरदर्द
अंग अंग के ऐंठन का तूफ़ान,
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान।
मेरी प्रतियोगी परी!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
आज है मेरे खेलकाल की
सबसे गंभीर होड़,
मैं प्रदेश की प्रतिनिधि धावक
मेरा लक्ष्य दो सौ मीटर की दौड़,
और आज ही है सख़्त सिरदर्द
चक्कर से घूमे सारा जहान,
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान।
मेरी तीव्र तितली!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
आज है मेरी प्रिय अनुजा
की सगाई की साँझ,
संगीत नृत्य से है भरनी
मुझे ही इस उत्सव में जान,
और आज ही हूँ मैं थक कर चूर
बदन में सूजन चेहरा बेजान,
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान।
मेरी गुलगुली गुड़िया!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
आज है मेरे व्यवसाय का
सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण,
एक भरी सभा के बीचों-बीच
करना है दुष्कर शास्त्रार्थ कठिन प्रदर्शन,
आज ही मेरे आवेगों की
सारी हदें हुई हैं पार,
मनोदशा कब बदले
स्वयं ही नहींं कोई भान,
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान।
मेरी चिड़चिड़ी चिड़िया!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
आज हूँ मैं एक नयी नवेली माँ,
नहींं जानती
नींद प्यारी अधिक या यह नन्ही जान,
रात दिन करना है
जलपान स्तनपान गच्छे का स्नान,
और आज ही मानो याद आ गयी
मेरी प्यारी नानीमाँ,
जब प्रचण्डता में दुगुने हुए
सारे लक्षणों के निशान,
आ जो पसरा यह अनिश्चितकालीन मेहमान,
प्रसव के पश्चात का प्रथम आतंकमय लहूलुहान।
मेरी आदर्श आत्मजा!
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना।
हाय! यह कैसा धर्म
क्या इतने दुष्ट थे
मेरे पूर्वजन्म के कर्म?
आरम्भ शर्मनाक अंत दर्दनाक
मन में वस्त्रकलंक का भय
त्योहारों में पृथकता का भाव,
जब मेरी पीड़ा से ही
चल रहा यह संसार,
फिर क्यों है वर्जित
पुरुषप्रधान समाज में
इस विषय पर विमर्श-विचार?
माँ! क्यों बोली तुम बारंबार?
चुप रहना! किसी से कुछ न कहना!
मेरी लड़ाकू लाड़ली!
कितना कठिन है तेरे संग तर्क-कुतर्क
ग़लत समझी मुझे तू विगत सारे वर्ष,
मैं बोली चुप रहना
इसलिए नहींं कि है यह विषय निषेध,
बल्कि इसलिए कि
उस भिन्न लिंग में नहींं जड़ी है क्षमता
जो तनिक भी समझे
तेरे इस कष्ट की जटिलता का भेद।
मेरी शौर्य शेरनी!
आँखों में आँखें डाल
तू सारे कष्ट सह जाएगी
पर “तुमसे इतना सा सहन नहीं होता“
यह वाक्य नहींं सह पायेगी,
सुन इन बेदर्द शब्दों को
तेरी पीड़ा दुगुनी से तिगुनी हो जाएगी।
इसलिए फिर दोहराती हूँ—
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना!
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