मेरा कुछ सामान
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
नमस्कार!
आइये बैठिये!
आपका बहुत बहुत स्वागत है
मेरे दस कक्षों के घर में,
अनगिनत ख़ुशियाँ डाली
हर खिड़की हर दर में।
इतनी माया ममता बुद्धिमता बरसाई
हर नुक्कड़ कोने वास्तु में,
कि जीवन मिले ना मिले अन्य किसी ग्रह पर,
अवश्य मिल जाएगा मेरे गृह की प्रत्येक वस्तु में।
शुरू करती हूँ प्रवेश मार्ग
हरे भरे आँगन बग़ीचे से,
"हर्ष" से सींचे मैंने इतने गमले
कभी ऊपर कभी नीचे से,
आमोद बिछाया बाघ बैठक के फ़र्नीचर बंदनवार में,
उल्लास पिरोया हर रंग के पवन झंकार में। (१)
इतने देशों से लायी
इस बैठक कक्ष का सामान,
तब जाकर बना यहाँ का "अभिमान"।
हर दीवार पर भर-भर के चिपका दी
संसार की सबसे सुन्दर तस्वीरें,
गर्वान्वित करते मुझे यह गद्देदार सोफ़े,
सौ इंच का टीवी और प्रदर्शन कृतियों की लकीरें। (२)
और यह है चाँदी के छुरी-काँटो
से "मनोरंजित" भोजन कक्ष,
भर-भर के परोसा आतिथ्य
दस कुर्सियों की भोजन मेज़ पर,
और उसपर चिपकायी चंदेरी चटाई इस क़दर
होने नहीं देती तनिक भी इधर उधर। (३)
पीढ़ियों से इतने "प्यार" से सँभाले
जाने कितने अचार मिर्च मसाले,
हर परिमाण के बर्तन डिब्बे जुटाए
जमाये खानों में कस कस के,
रसोई पर न्योछावर किए
जाने कितने प्याले प्रेम रस के। (४)
और यह है घर के अंदर ही दफ़्तर,
डाली यहाँ बेहिसाब "प्रेरणा"
हर उपकरण का सर्वश्रेष्ठ रूपांतर,
चार चित्रपटों वाला नवीनतम संगणक
एकाधिक वैशिष्टयों वाला अधुनातम मुद्रक,
और ऊँचा सा तख़्ता धरे
एक सौ से अधिक पुस्तक। (५)
सोने वाले दो, पर तकिये हैं बीस,
चारो ओर परदों की परत तीस,
भूमि पर सुप्त कालीन आलीशान,
प्रकट तो करती हूँ प्रतिदिन "आभार"
पर लौटा ना पाऊँगी इस शयन कक्ष के एहसान । (६)
किस परिधान पर क्या जंचता है,
किसे कौन-सा अलंकार अच्छा लगता है,
कौन चाहता इस्तरी सिलाई,
किसे हैंगर तो किसे ड्रायर भायी,
सारी "दिलचस्पी" सारी संवेदना लुटा देती हूँ
इस वस्त्र कक्ष में धीरज धर के घंटों बिता देती हूँ।(७)
और यहाँ हज़ारों की तादाद में भरे
खिलौनों से मेरी लाखों "आशाएँ",
एक प्रतिशत भी संदेह ना आए –
खेल का परिश्रावक चिकित्सक बना देगा
गृहों का नमूना वैज्ञानिक बना देगा
पिंग-पांग का संग्रह सीधे ओलिंपिक पहुँचा देगा।(८)
पाँवचक्की साइकिल डंबेल से तना,
योग चटाई इलाजी वृक्षों पत्थरों से सना,
"श्रद्धा" का पात्र व्यायाम कक्ष,
आधुनिक पुरातन का उत्तम मिश्रण,
भले ही महीनों होते नहीं दर्शन,
फिर भी मेरी सारी आस्थाएँ हैं यहाँ अर्पण।(९)
अंततः यह है मेरा अतिपवित्र पूजा कक्ष,
ध्यान जप से भर दी है परम "शान्ति",
एक विस्तृत सा मंदिर अनेकों प्रतिमाएँ,
बग़ल में बड़ी सी अलमारी में सधी
पूजा की पुस्तकें यज्ञ सामग्री वृत्त कथाएँ।(१०)
नमस्कार!
कोने में चुप बैठा
एक लाचार उपेक्षित वंचित इंसान,
सामान को मिलता इतना सम्मान
देख कर है बड़ा हैरान परेशान,
मन ही मन सोच रहा कि काश!
वहाँ सुख बरसाते बरसाते,
यहाँ एक आँसू ही सुखा दिया होता। (१)
वहाँ गौरव करते करते,
यहाँ एक गुण ही स्वीकार लिया होता। (२)
वहाँ मनोरंजन करते करते,
यहाँ देख बस एक बार मुस्कुरा दिया होता। (३)
वहाँ प्रेम रस बहाते बहाते,
यहाँ स्नेह का एक घूँट ही पिला दिया होता। (४)
वहाँ प्रेरणा जगाते जगाते,
यहाँ कल की किरण देखने का एक कारण ही दिखा दिया होता। (५)
वहाँ आभार प्रकट करते करते,
यहाँ वर्षों की सेवा को एक क्षण ही सराह दिया होता। (६)
वहाँ दिलचस्पी दिखाते दिखाते,
यहाँ दिल का नहीं तो दिन का हाल ही जान लिया होता। (७)
वहाँ आस लगाते लगाते,
यहाँ एक प्रतिशत विश्वास ही जता दिया होता।(८)
वहाँ आस्था भरते भरते,
यहाँ एक ईमान ही भान लिया होता। (९)
वहाँ शांतिकुंज बनाते बनाते,
यहाँ मन के कोलाहल को बस हल्के-से सहला दिया होता। (१०)
चीज़ों के दाम
ब्रांडों के नाम जानते जानते
इंसान की क़ीमत को भुला दिया है।
अति की हद करते करते
धरती को स्पर्धा का आलय बना दिया है।
भौतिकवाद में खोते खोते
घर को मंदिर की जगह संग्रहालय बना दिया है।
देख निर्जीवों के प्रति
इंसान का यह शाश्वत समर्पण,
लगता पृथ्वी-ग्रह पर हो
जैसे एक सर्वव्यापी भ्रम –
जब आएगा यमराज का निमंत्रण,
चार कन्धों संग चलेंगे
सामान से आबाद चार बड़े बड़े वाहन।
(सन्दर्भ: डॉ. बारबरा फ्रेड्रिक्सन की किताब "पॉसिटिविटी" में विस्तारित सकारात्मकता के दस पहलुओं पे आधारितhttps://counselorcarmella.wordpress.com/2012/07/31/dr-fredricksons-10-positive-emotions/)
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टिप्पणियाँ
डाॅ नीलिमा रंजन 2021/11/03 07:51 PM
बहुत हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति । सत्य है भौतिकवाद की होड़ ने मनुष्य को मानव ही नहीं बनने दिया। हर प्रश्न का उत्तर बस एक नया नकोर सामान। आपको भौतिकवाद पर एक नवीन प्रकार से शोध करने खेल लिए असंख्य बधाई और साधुवाद ।
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मधु 2021/12/11 10:01 PM
डॉ॰ खरे, आपकी कविता ने दिल व दिमाग दोनों को ही झंझोड़ कर रख दिया! हम अपने सामान की प्रदर्शनी करने की प्रतियोगिता में इतने मग्न हो जाते हैं कि जान ही नहीं पाते कब/कैसे हमारे हृदय के पट बंद हो गये व कब/कैसे उस प्रदर्शन के कारण स्वयं को मानवता के दर्शन करने से वंचित कर बैठे। साधुवाद।