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काव्य क्यों?

एक बात क़तई समझ ना आए
क्यों लिखती हो यह लंबी-चौड़ी
विचित्र विषयों वाली कविताएँ? 
लगता दूजा कोई काम न आए, 
जो व्यस्त कर उँगलियों को
बनाया यह अतरंगी व्यवसाय। 
 
एक बेरंग कागज़ 
दो-चार रंगों की स्याहियों का फुवारा, 
चंद घंटों में होगा 
चंद शब्दों का तुकांत सँवारा, 
अंत में इठला कर लिखती हो 
दो अक्षर का नाम तुम्हारा, 
मात्र इतना ही ना 
तुम्हारी काव्य-कथा का किनारा? 
 
अवयः केवलकवयः कीरा स्युः केवलं धीराः। 
वीराः पण्डितकवयस्तानवमन्ता तु केवलं गवयः॥

 
उफ़! इस ओर जो
यूँ उँगली उठाई है, 
प्रतिवचन में हर उँगली मेरी 
काव्य-उड़ान भरने को फड़फड़ायी है। 
क्या बताऊँ
अकथनीय काव्य की यह कथा है, 
व्यवसाय नहीं 
यह तो एक विशिष्ट व्यथा है। 
मत पूछो कब लिखते हैं 
यह पूछो कब नहीं लिखते हैं। 
आज बिक जाते हैं इंसान, 
बस कविमन से निकले
शब्द नहीं बिकते हैं। 
 
चंद मिनट पढ़ कर
सत्तानवों ने नकारा, 
दो ने सरसरी आँखों से सराहा, 
मात्र एक ने
दस बार पढ़ सम्मानजनक स्वीकारा। 
भावुकता यूँ लुप्त हुई
कि गिनती के सरगर्म दिखते हैं, 
तो भूल कर भी ना समझना 
कि हम पाठकों को रिझाने के लिए लिखते हैं। 
 
तुम्हें दिखे जो 
सीमित शब्दकोष से निकले 
शब्दों की बूँदाबाँदी, 
है वह अनगिनत आयामों से निकले
मूसलाधार विचारों की आँधी। 
तुम्हें लगे जो 
चतुर्रंगी स्याही की फुलवारी, 
है वह चेतन मन, अवचेतन मन, 
हृदय और प्राण से निकली 
चतुर्धाम की सवारी। 
 
जब चेतन मन से निकलती 
इन्द्रियों की ग्रहणशक्ति की पुकार, 
कुछ शिकायत कुछ सुविचार 
कुछ सुधार कुछ आभार, 
अति ऊहापोह से मुक्ति के लिए 
सौंप देते हैं किसी दैनंदिनी को 
रैन का चैन पाने के लिए। 
 
जब अवचेतन मन से निकलती
अंतःकरण के आघातों की कराह, 
कुछ गाँठें कुछ कड़वाहट 
कुछ स्वीकारोक्तियाँ कुछ घबराहट, 
जिनकी औषधविज्ञान में कोई दवा नहीं होती, 
सौंप देते हैं अंतरजाल के अंड को 
अन्तःशान्ति पाने के लिए। 
 
जब हृदय से निकलती
हृदयवासियों से संवाद की भाषा, 
गुज़रों को अंतिम बिदाई देकर भी 
धरण करने की आशा, 
बिछड़ों को पूर्णतः खोकर भी 
पाने की अभिलाषा, 
जो काग़ज़ जला कर भी भस्म नहीं होती, 
सौंप देते हैं ब्रह्माण्ड के कम्पन को 
हृत्स्पंद निरंतर चलाने के लिए। 
 
जब प्राण से निकलती 
प्रभु से प्राणमयी प्रार्थनाएँ, 
क्या त्यागें क्या अगले जन्म संग ले जाएँ, 
प्रबुद्ध शुद्ध बनने का बोध आ जाए, 
जो नश्वर प्राणियों से व्यक्त न कर पाएँ, 
सौंप देते हैं स्वर्ग के किसी अभ्र को 
प्राणपुण्य कमाने के लिए। 
 
कविमन कैसे समझाएँ तुम्हें
कभी पश्मीना सा कोमल
कभी फ़ीते सा खिंचता है, 
शब्दों से इसका कुछ अलग ही रिश्ता है, 
कच्ची उम्र से ही 
हर मंजुल छंद पढ़ अंदर तक हिल जाते थे, 
हर पात्र की पृष्ठकथा सुन आँसू बहा जाते थे, 
प्रश्नों के उत्तर लिखते लिखते 
स्वरचित काव्य की छाप जमा जाते थे। 
स्याने हुए तो देखा 
असली संसार में है ही नहीं 
शब्दों का मोल भाषा का भाव, 
बस सुनने पढ़ने में आता
एक लठ्ठमार प्रभाव, 
लोग प्रयोग के पूर्व 
शब्दों को तोल नहीं पाते हैं, 
और अपशब्द बिना तो
एक वाक्य भी बोल नहीं पाते हैं। 
 
कविमन कैसे दिखाएँ तुम्हें
खिन्न सा भिन्न सा होता है, 
झुंड की लम्बाई में भी 
स्वयं की गहनता में खोता है, 
मुस्कुराता हुआ वह मधुर चेहरा 
केवल एक मुखौटा है। 
एक व्याकुलता बनी रहती है-
कहीं समय से पहले
उँगलियाँ शिथिल न पड़ जाएँ, 
अकस्मात एक साँझ 
विचारों की तीव्रता न ढल जाए, 
एक ललक सी सदा रहती है-
संसार को भावप्रवणता से 
बेहतर बना जाएँ, 
गिनेचुने भावुकों के लिए 
भावनाओं की धरोहर छोड़ जाएँ, 
ताकि प्राण जाए पर काव्यवचन न जाए। 

सन्दर्भ: 

https://blog.practicalsanskrit.com/2010/04/wise-and-poet.html 

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