मित्र-मंथन
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Aug 2023 (अंक: 234, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मन के समुद्र-तट पर
एक गढ़ी रेत से सनी-
कि चाहे रहूँ दरिद्र
या बन जाऊँ धनी,
पर हो मित्रों की
अनेक मण्डलियाँ ठनी,
और हर एक मण्डली हो
कुम्भ के मेले सी घनी।
वरुण कृपा से बैठे बिठाये
मिल ही गए थे
जाने कितने मनमोहक सखी सखाएँ-
किसी ने गुदगुदी की लहर उठा दी थी,
तो किसी ने निःशर्त स्नेह की भोर जगा दी थी,
किसी ने जाति उम्र लिंग की सीमा हटा दी थी,
तो किसी ने सांसारिक शोभा की भँवरी बना दी थी,
और किसी ने डूब डूब कर प्रशंसा की पुलिया सजा दी थी।
पर धीमे धीमे
वरुणी की शक्ति रिस रही थी,
मैं अब भी बैठी थी पर समक्ष
सृष्टि कुछ अलग ही दिख रही थी-
परिहास के भेष में उपहास खड़ा था,
एकपक्षीय मैत्रियों का जाल खड़ा था,
निजी सीमाओं का अपमान खड़ा था,
अस्वस्थ दबावों का अभिप्राय खड़ा था,
और सबसे अधिक दुखदाई,
व्यंग्य भरी प्रशंसा लिए ईर्ष्या का नाग खड़ा था।
नहीं जानूँ कि है यह
ईश्वर प्रदत्त कृपा या दण्ड-
कि हर मोहभंग की कथा
है शब्दशः कंठस्थ,
हुई थी आतंरिक रूप से
खंडित अस्वस्थ,
फिर भी जाने कैसे
विषाक्तता के मध्य भी
हूँ जीवित कायस्थ?
जिज्ञासु मैंने तोड़ ही डाले
सारे ताले मनकपाट के,
फिर जाना कि
सर्प से बचती पिसती
अनजाने में
पर्वत हिला आयी हूँ घाट घाट के,
और वर्षों के मंथनों से
अल्प अदृश्य रत्न
समेट लायी हूँ छाँट छाँट के-
जो मेरा विशुद्ध रूप समक्ष ले आते हैं,
संकटकाल में साया बन जाते हैं
निजी मंथनों को समानुभूति से सुन पाते हैं,
अध्यात्म की राह दिखाते हैं,
और अधिक महत्त्वपूर्ण-
मेरी छोटी बड़ी सिद्धियों का
मन की गहराई से उत्सव मनाते हैं।
हाँ! हैं गिने चुने
एक भी मण्डली नहीं हैं,
पर हर एक में
मानो एक सम्पूर्ण कुम्भसभा सजी है-
जो मेरी ऊपरी परतों को हटा
स्वयं से साक्षात्कार करवा रही है,
जीवन अवरोह पथ पर
मुझपर निर्झर अमृत बरसा रही है।
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