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तुमने क्या किया? 

 

जानते हो 
तुम्हारे दिए उन ढाई उपहारों का 
मैंने क्या किया? 
 
प्रथम एक पारदर्शी शीशी में घुला इत्र था—
हेमंत की बर्फ़ सा पवित्र था, 
वर्षा की मिट्टी सी सुगंध थी
मानो मेरी संजीवनी उसमें बंद थी, 
जानती थी—
मात्र नाड़ी बिंदुओं पर छिड़कना था 
पर मैंने तो अंतस तक उड़ेल दिया। 
 
द्वितीय एक अर्धव्यक्त तार था 
शिशिर की धूप सा आकार था। 
कहीं अंजन की ग्रीष्म निशा से उपमा 
तो कहीं मेरी मुस्कान पर सूरजमुखी का अलंकार था, 
जानती थी—
मात्र सराह कर बिसरना था 
पर मैंने तो पंक्ति पंक्ति चिरस्मृति में बसा ली
आगे की कविता स्वयं ही रच डाली। 
 
तृतीय वही प्रस्तावी गुलाब था 
एक पुष्प में सिमटा मेरा बसंतकाल था 
अरुणिम छाया काया पर पसर गयी थी 
और मैं शरद सी बिखर गयी थी। 
जानती थी—
बस किसी किताब में छुपाना था 
पर मैंने पंखुड़ियों को पीस कर 
कुमकुम बना लिया 
कुछ मस्तक पर तो कुछ माँग में सजा लिया। 
 
कभी तुम भी बताओ 
तुमने क्या किया—
अवैध समझ के नकार दिया
असत्य समझ कर फाड़ दिया 
या कलंक समझ कर झाड़ दिया? 
मेरे ढाई अक्षर के उपहार का 
तुमने क्या किया? 

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