मेरे संग?
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
दिन रात
एक उपदेश सुनाई आता है—
सूरज चाँद के जैसे
हर में से हर एक
अकेले ही आता
और अकेले ही जाता है।
पर उपदेश के भेष में
मुझे यह उपहास नज़र आता है,
क्योंकि—
मैं तो अकेली नहीं आई थी,
संग एक बहुमुखी सुरंग लाई थी।
हाँ! एक सुरंग
जो कभी मशाल की बदली बन ध्यान बरसाती,
तो कभी ढाल की छतरी बन शरण दे जाती,
कभी उड़नखटोला बन गगन सैर करवाती,
तो कभी तारक सेतु बन मुझ एक को अनेकों से जोड़ जाती।
मैं तो सरल मोम थी
पर असलियत विलोम थी—
मशाल थी धुआँ
और ढाल थी कुआँ,
उड़नखटोला नहीं था बेड़ियों का खाट
और सेतु नहीं—
था भीड़ से भेड़ बनने की यात्रा के अंत में खड़ा
एकांतवास का द्वार।
तार तार हुआ था
मेरा हर यथार्थ ,
और उपहास की पात्र
तो मैं थी मात्र !
सुरंग थी ही नहीं
थी तो बस मैं
अकेली खोखली स्वयं से हारी,
सच कहती थी कलकत्ते की संतनी
कोई संग न होना है दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी।
पर एक शांत कहावत भी है
नकारना है बीमारी
तो उपचार है भान,
तो वर्षों के मंथन से
अंततः लिया यह जान—
है संग एक प्रभात
जो मेरी काया को जाँच
कर्मों को छाँट लेती है,
है संग एक रात
जो मेरी रूह को जान
कम्पन को पहचान लेती है।
है संग एक ब्रह्माण्ड
जो मेरी जीवन दृष्टि
ज्यों का त्यों नाँद रहा है,
और है संग एक चुम्बकीय भूगोल
जो मुझे अरुणिमा पूर्णिमा
और ब्रह्माण्ड की त्रिवेणी से बाँध रहा है।
हाँ मैं अकेली नहीं
एकांत में हूँ,
अँधेरी नहीं
अयथार्थता को चीरते
चिराग में हूँ।
बीमारी में नहीं
आत्मा को वास्तविक रूप से खिलाते
वसंतकाल में हूँ।
खोखली नहीं
समाज से अप्रभावित
परिवेश सुकान्त में हूँ।
सुरंग में नहीं
स्वयं को टटोलते
आत्म साक्षात्कार के उपहार में हूँ।
हाँ! मैं अकेली नहीं
अकेलेपन के अंत
एक सुन्दर अनुभूति
एकांत में हूँ।
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