कहाँ गईं वह दो चोटियाँ?
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
इस विश्वामित्र से जीवन में
मेनका सा आया “हाई-स्कूल रीयूनियन” का दिन
इन्द्रियों को भटका गए भिन्न भिन्न विषयों के प्रश्न चिह्न।
पहले तो कानों में गूँजे
गणित के दो सवाल—
अरे! कहाँ गयीं वह दो चोटियाँ?
और कहाँ गयी वह बत्तीसी मुस्कान?
फिर धुँधले से दिखे भौतिकी के सवाल—
क्या दूरंदेश के उत्तल से
पास दिखता है अतीत का आसमान?
लगभग किस गति पर उड़ा था
वह ढाई दशक का विमान?
फिर चखने में आए रसायन विज्ञान के सवाल—
किस प्रसाधन से धोई थी
वह सरलता की निखार?
किस मिलावट में खोई थी
वह उत्साह की फुहार?
फिर श्वास में आये भाषा के सवाल—
क्या अब भी कर सकती हो
फ़िल्मी गीतों का संस्कृत में अनुवाद?
क्या वंश कर पाते हैं मातृभाषा में संवाद?
अंत में स्पर्श किये पाठ्यक्रम के बाहर के सवाल—
कहाँ गयी सिर चढ़ाने वाली
वह दो गुदगुदाती सहेलियाँ?
और कहाँ गए
हर बात पर चिढ़ाने वाले
वह दो नटखट यार?
इन्द्रियों को बहलाने वाला
उत्तर था तैयार—
यह सारे प्रश्न
हैं निरर्थक अनाकार
क्योंकि हूँ केंद्रित मैं
गृहस्थ सजाने में
पत्नी की माँ की भूमिका निभाने में,
बड़े लक्ष्यों को चूरने में
जीवन के अधिक महत्वपूर्व
प्रश्नों को पूरने में।
हालाँकि इस फुसलाने से तो
एक इन्द्रिय ना झुकी थी,
पर इस ही बीच, अवचेतन की
एक किशोरी उठ खड़ी थी—
जो संयोग से खोज रही थी
बिलकुल इन्हीं मार्मिक प्रश्नों के उत्तर,
इसीलिए रजत जयंती पर
आयी सचेतन
लेकर रजत चढ़े सर
संग दबे-दबे अधर,
यही जानने कि—
कहाँ गयीं वह लाल रिबन में झूलती
दो लम्बी लम्बी चोटियाँ?
और कहाँ गयी वह बेपरवाह बेक़सूर
बिन बात की मुस्कान?
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