विद्या कथा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बस चंद क्षणों का कन्यादान
पर हर लेता पिछली पहचान,
धर कन्यामन दानी के द्वार
बन रिक्तपटिया तू जा उस पार।
कथा आरंभ—
उन्नीस सौ
सत्ताईस की बात
तीन पुत्र बाद आयी
बेटी की सौग़ात,
जन्म पर जनक को दिखी
साक्षात् माँ सरस्वती,
भावुक हो बोल पड़े
यह है मेरी विद्यावती।
विद्या थी विद्या सी
चतुर सी सरस सी
विनोदी सी विवादी सी
भाइयों संग पढ़ती भिड़ती
सखियों से भिन्न राह जाती सी।
बीस के पहले ही
विश्वास से विदा की थी,
ब्रह्म से कविराज संग
युग युग की युगल बना दी थी।
शब्दों के उस ज्ञानी ने
यूँ छेड़ी प्रेमरस वाणी थी,
भूल चली उस पीहर को
जिसकी वह प्रेम दीवानी थी।
हरियाली तीज फुलहरों से
झोली लगती फुलवारी थी,
एक कन्या दो सुकुमारों की
यूँ खनकी एक किलकारी थी।
पर कल की पीड़क होनी को
कहाँ जानता आज,
छीन गई निर्दयी नियति
विद्या के कविराज।
फिर गूँज उठा हर ओर से
बस एक छंद एक काज,
दर दर कर झाड़ू पोंछा
घर घर जाकर बर्तन माँज।
पच्चीस की सुरबाला
सुन कोलाहल के नाद,
अकस्मात कर बैठी
उस बिसरे बचपन को याद,
कैंची से सायकल चलाती थी
बिन सुने किसी की बात,
चुटकी में पढ़ती पढ़ाती थी
वह कठिन जटिल से पाठ।
बस उस धुन में ही कर ली थी
एक गर्भित रेखा पार,
विद्या ने विद्या बन दी
उस प्रलयकाल को मात,
बन तीनों की मातपिता
चढ़ी एक एक के बाद-
स्नातक
स्नातकोत्तर
प्राध्यापक-पद
के तीन प्रचंड पहाड़।
पर छुपी रही एक घूँघट में
वह कोमल कमसिन दुलहन,
बस काव्य से मन को भर कर
वह बिरली बावरी बिरहन,
हर छंद में सुन लेती थी
वाहवाहियों की आवाज़ को,
आजीवन जी में धर कर
उस सुरमय से कविराज को।
—कथा समाप्त
यह कष्टमय सा कन्यादान
आख़िर होता है पुण्य समान,
हैं सौंपे तेरे संग संग
नभ से भी ऊँचे अरमान,
तो कर ही दे अब तू भी भंग
अपने अनपढ़ से अनुमान।
पीहर को सहला देना
फिर पंखों को फैला लेना
रस ले कर जीना वह कगार,
समरसता को पकड़े रहना
पर जड़ों को जकड़े रहना
बस जस की तस जाना उस पार।
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