संकेत की भाषा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
कौन हो तुम?
मैं वह हूँ जिस पर ईश्वर ने
विशेष की मोहर लगाई थी,
कर्णावर्त तंत्रिका जन्मजात
विकसित नहीं हो पाई थी।
मेरे जन्म पर यह जान मेरी माँ
फूट फूट कर रोई थी,
ग्लानि में कितनी रातें
एक झपकी भी नहीं सोई थी।
फिर तुम कौन सी भाषा
बोलते हो और सुनते हो?
और कौन सी भाषा में
भविष्य के सपने बुनते हो?
यह ऐसी भाषा है जिसे
आम व्यक्ति शायद ही सुन सकता है।
क्योंकि इस भाषा को सुनने के लिए
कान की नहीं ध्यान की आवश्यकता है।
हाँ वही ध्यान जो-
दुनिया से लेने के लिए
आपने सारे कैमरों को स्वयं की ओर मोड़ लिया है,
आत्मलीनता आत्मजुनूनी के दौर में
आपने इसे दूसरों की ओर देना ही छोड़ दिया है।
जब मुझसे कोई कुछ कहता है
मैं उस क्षण में उपस्थित रहता हूँ,
बात को दोहराने को कभी नहीं कहता हूँ।
वक्ता की भावनाओं के अंदर तक झाँकता हूँ,
अर्जुन का लक्ष्य समझ उस फोन को नहीं ताकता हूँ।
जब मैं किसी से परिचय करता हूँ
उन्हें जानने के लिए
स्वयं का पूरा अवधान संचय करता हूँ।
नाम पूछता हूँ याद रखने के लिए
ना केवल औपचार प्रकट करने के लिए।
हाल-चाल पूछता हूँ हृदयव्यथा घेरने के लिए
ना कि उत्तर सुने बिना ही मुँह फेरने के लिए।
भविष्य का सपना विशेष तो नहीं
पर है श्रवणीय-
नवाचार के अवसर को नई परिभाषा दिलाने का,
हाव भाव पढ़ने की शैली को दुनिया को सिखाने का,
भूली बिसरी सुनने की कला को फिर वापिस लाने का।
पर भूल कर भी मुझे भिन्न ना समझना!
आख़िर हूँ कृष्ण का ही रूप,
अतिबुद्ध उपदेशक हूँ,
पर हूँ मोहक नटखट भी,
बहुत मज़ा आता है मुझे शोर मचाने में,
ईश्वर ही जाने क्यों रोई थी माँ
मैं तो मदमस्त हूँ व्यस्त हूँ इतिहास रचाने में।
प्रवाह के विपरीत तैरते हुए
धाराप्रवाह आती मुझे,
यह उँगली सञ्चालन से बनी
दुनिया की सबसे अभिव्यंजक भाषा।
माँ को गद्गद् कर गर्व से भरकर
ख़ुशी के आँसू देने की आशा,
मातृभाषा से ऊँचा स्थान रखती
मेरी यह संकेत की भाषा।
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