सातवाँ मौसम
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 Jul 2023 (अंक: 232, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मौसम के समाचार से
बेख़बर बेसुध,
एक काँच के बुलबुले में
बैठी जैसे कोई बुत।
पीले गेरुए के
मध्य का रंग
पत्तियों का एक युगल
मानो युग युग का संग,
अनायास यूँ
उड़ आया मेरे पास,
जैसे चर्म फेंक कर
आ बैठी दबी हुई एक आस।
और मैं—
चावल सी खिली थी
खीर की मिठास से,
चाँदनी सी धुली थी
शरद के पूर्णमास से।
जोड़े को संग बाँध रहा
एक ऊनी गुलाबी गोल,
धुएँ के संग संग
निर्गम करता
पिघलाने वाले बोल,
और मैं—
बर्फ़ सी चमकी थी
रूप से स्वरूप से,
सोने सी दमकी थी
हेमंत की धूप से।
ऊन की डेरी
बिखर बनी
पतंगों की डोरियाँ,
निःस्पर्श खींच रही
हरियाली की लोहड़ियाँ
और मैं—
उस भावुक क्षण में जमी थी
शून्य से नीचे गिरते पारे से,
अंतस तक थमी थी
शिशिर के शीतल आरे से।
ओरिगेमी से पतंग
मुड़ मुड़ कर बनी
रंगीन फूलों की लड़ी,
नदियों का मिलन
दे गया आत्मीयता की कड़ी,
और मैं—
सरसों सी लहरायी थी
कोकिल की फनकार से,
सोलह सी इठलायी थी
बसंत के शृंगार से।
फूल फूल पर
राहत से बैठे
छुट्टी वाले खेल,
खुली छत मन छेड़े
वह ठंडी रात बेमेल।
और मैं—
सुबह सी सधी थी
फलरसों के प्रकाश से,
पुनः जीवन से भरी थी
ग्रीष्म के अवकाश से।
खेलों ने लड़ भिड़ कर
तोड़ी बांधों की तान,
पानी पानी करती
एक इंद्रधनुषी मुस्कान।
और मैं—
नज़रों से बची थी
बादल के अंजन से,
मिट्टी के इत्रों से सजी थी
वर्षा के अभिव्यंजन से।
वह छह ऋतुएँ थी
एक पल के समान
एक अंकुशित साहिल
के जल के समान।
और . . .
अब वही छह ऋतुएँ
एक सदी के समान,
समुद्र खोजती विषाद में सूखती
एक नदी के समान।
और मैं—
एक काग़ज़ की नाव
अश्रुवर्षा में भीगी
ढूँढ़ रही एक छोर,
यह दलदली यात्रा
जितनी कठिन उतनी कठोर।
और उस पर
निरुत्तर अकाल का वार
मानो हो एकतरफ़ा प्यार,
अनंत तपस्या, अनंत त्याग
ग्रीष्म से गहरी विरह की आग।
फिर बसंत की उलझन संग
धूल में ओझल होती
वही सदी पुरानी आस,
ना कलकल ना कोयल
बस सुनने में आती
रुकी रुकी सी साँस।
शिशिर की डोरी सी
थी सिमटी सिमटी
रग रग से,
बिखरने की ललक थी
पर कांधा ना मिला
जाने कब से।
फिर कड़ाके की ठण्ड
उस पर कोहरा अनंत
हेमंत न हुआ
हुआ जीवन का अंत।
और यह शरद तो
जैसे हो कोई अमावस
सूई हिलाये जाऊँ
पर धागा जस का तस।
और मैं बस ढूँढ़ रही
वही बीच का रंग,
एक अंतिम पत्ती
जिस पर लिख डालूँ
एक अंतिम रक्तरंजित छंद।
हे ऋतुराज!
अब बस
एक सातवें मौसम का इंतज़ार,
जो ना मुझे रिझाए
ना दे कोई उपहार,
जिसे ना मैं रिझाऊँ
ना करूँ अपलक निहार,
बस हो एक संयम एक समभाव,
फिर हों ऐसे दो जन्म
कि सहजतः मन जाए
एक जीवंत त्योहार।
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