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रिश्ते की अर्थी 

इस प्रबुद्ध संसार में
हमने की अपवादों की आशा, 
जतन से खोजे सौ बावरे 
और पूछी जीवन की परिभाषा, 
एक सुर में बोले—
 
कल तक जो था
खुले हाथों से सींचा 
हरे भरे सम्बन्धों का बग़ीचा, 
आज है मात्र 
कँपकँपाते हाथों से थामा 
क्रमशः मुरझाता हुआ एक गुलदस्ता, 
हृदय के हर एक खंड में है अटका 
एक अलग खंडित रिश्ता। 
कोई जबरन खिंचता है 
तो कोई मरम्मत के लिए तरसता है, 
कोई रक्त सा रिसता है 
तो कोई अश्रु संग बरसता है, 
और एक तो कुछ यूँ पसरता है
जो दशकों तक बिछड़ कर भी 
कण भर भी ना बिसरता है। 
  
जीवन के ख़ालीपन को
सहजता से भरता हुआ, 
अकारण ही
अनंत अधिकार करता हुआ, 
वह कच्ची उम्र में बना बेनाम रिश्ता
संग ले आया था 
गहरी मित्रता भावनात्मक सुरक्षा 
अनुभूति आत्मीयता, 
डरी सहमी अंतर्मुखी 
अतिपराश्रित अतिसुरक्षित सी मुझको 
दे गया था एक आस
एक अनूठा “आत्मविश्वास।” 
  
पर मंदभागी था वह सम्बन्ध
नहीं मिला कोई अर्थ कोई अंत, 
अनगिनत कारण कुछ ग़लत कुछ सही
अनगिनत विनती मगर नहीं तो नहीं
जो हुआ सो हुआ कहकर आगे तो बढ़ी
लौटाए उपहार तोड़ दी हर कड़ी, 
सोचा उस ही आत्मविश्वास के सहारे 
फिर हो जाऊँगी अपने पैरों पर खड़ी, 
पर आत्मविश्वास का तो 
दूर दूर तक नहीं था कोई नाम 
संग ही लुप्त हुआ था आत्मसम्मान, 
सिर पर हाथ रख कर बैठी ही थी 
कोस रही थी जीवन का यह अनचाहा रोध, 
अकस्मात्‌ दिखा एक अनदेखा अंश 
नाम था जिसका “क्रोध।” 
  
बेहिसाब आता क्रोध 
हर दिन हर रात आता क्रोध, 
निन्यानवे प्रतिशत स्वयं पर आता क्रोध, 
क्यों नहीं थी मैं योग्य
और क्यों नहीं समय पर आया बोध? 
कई वर्ष यूँ छिपा मेरे भीतर 
कि भनक नहीं लगी किसी को तनिक भी, 
फिर धीरे धीरे हुआ स्पष्ट दृश्यमान 
मेरी भाषा में कर्मों में 
चरित्र के विभिन्न रंगों में 
चिरकारी दर्द के रूप में अलग-अलग अंगों में। 
एक दिन सहा ना गया 
चिल्ला कर झल्ला कर मैंने पूछ ही लिया—
भाई! क्यों सता रहे हो
ना सोने देते हो ना जीने ना मरने, 
आख़िर चाहते क्या हो? 
क्रोध ने मुस्कुरा के
बड़ी मधुरता से दिया मुझे टोक-
मैडम, मैं क्रोध नहीं हूँ
मेरा असली नाम है “शोक।” 
  
मैं वही सूक्ष्म कण हूँ
जिसे आगे बढ़ने की शीघ्रता में 
आपने पल्लू से झट से झाड़ दिया था, 
घोर निर्दयता से अतीत के 
उस पन्ने को फाड़ दिया था, 
मैं हूँ वह बच्चा
जो अपनों की गरमाहट से वंचित रह जाता है
और फलस्वरूप सारा शहर ही जला जाता है, 
एक बार देखती तो सही, 
गले से लगाती तो सही, 
मुझे समझती तो सही, 
जी भर आँसू बहाती तो सही, 
वर्षों पूर्व ही मिला होता
आपको मनवांछित समापन! 
इतना कहकर 
पुनः मुस्कुरा कर शोक विदा हुआ, 
बीस-बीस की पश्चदृष्टि से स्पष्ट दिखा 
कि अतीत में आख़िर क्या हुआ, 
सौभाग्य से पुनः मिला वही अनूठा आत्मविश्वास
लौट के आया था जैसे मनाने कोई जश्न
भरी सभा में उठा गया मेरे मन में कुछ “प्रश्न।” 
  
किसी जीवित संग रिश्ते की मृत्यु 
किसी इंसान की मृत्यु से कम क्यों होती है? 
क्यों इस मृत्यु को छिपाना पड़ता है
भावनाओं को अंतस तक दबाना पड़ता है? 
क्यों चुप रहकर ही सम्मान मिलता है
कुछ बोलो तो उपहास मिलता है? 
क्यों झट से आगे बढ़ने पर भी
हम रह जाते हैं वहीं के वहीं? 
क्यों किसी को पता ही नहीं
कितनी रातों से हम सोए ही नहीं? 
क्यों नहीं आई थी तुम रूदाली? 
क्यों नहीं मिली उस रिश्ते को 
योग्य आदरांजलि श्रद्धांजलि? 
क्यों नहीं आया था कोई मनाने 
और समझाने कि भगवान की है यही मर्ज़ी? 
  
सारे प्रश्नों का एक उत्तर 
एक प्रतिशत उत्तरदायी नियति से 
एक विलम्बित विनती—
काश! धस जाती मैं
डस लेती मुझे यह कलयुग की धरती
या मिल गयी होती 
उस ही गुलदस्ते से सजी 
मेरे रिश्ते को एक अर्थी! 

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