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मेरे सूरज का टुकड़ा

हाँ नहीं देखा तुम्हें कभी
बस देखी एक तस्वीर,
एक सुनहरे चेहरे का गोलाकार
जिसमें निहित जैसे सौर परिवार।
 
हेमंत की धूप सी भीनी मुस्कान
अरुणिमा से रँगे अधरों के कमान,
मध्याह्न के सूर्य को भले ही ताक लूँ लगातार,
इन चौंधियाने वाली चमचमाती आँखों में
नहीं झाँक पाऊँ एक भी बार,
सुवर्ण कृष्ण सी छवि घुँघराले बाल लिए,
किरणों सा वात्सल्य बिखेरती
दिवंगतों संगियों भावी आगंतुकों के लिए।
 
इस रवि छवि पर नहीं हुआ
किसी अंजन का असर,
अपनों की सपनों की सूर्य देवता की
लगनी ही थी नज़र।
क्यों अस्त हुए यह बोध नहीं
कहाँ रूपांतरित हुए यह ज्ञात है मुझे,
उस शून्य स्थान में गए थे छोड़
एक लौ एक लपट,
जो मैने उठा ली थी झट से झपट के,
जन्मदिन की भोर मिला
नया खिलौना समझ के।
 
आज चार दशक पश्चात्
सवितुर की कृपा से
उस लौ के उजाले में,
तुम दिवाकर से स्पष्ट दिखते हो मुझे
जनक की तपस्या नियमितता अनुशासन में
तेजस ऊर्जा आभा से मिलते उदाहरण में,
जननी के नर्म स्पर्श से मिलती राहत में
हाथ से बुने अनगिनत ऊनी कपड़ों की गरमाहट में,
भार्या की रक्षात्मकता सौहार्द में
अँधेरों से रावणों से अकेले डटकर निपटने की आग में।
 
जानती हूँ –
दिनकर की दूरी से अधिक दूर हो
नहीं मिलोगे खेलने-लड़ने को
दो क्षण के लिए भी,
पास होते तो शायद लड़ लेते
इस कृत्रिम सोने-सी दुनिया से
थोड़ा मेरे लिए भी।
 
पर जहाँ भी हो बस जान लेना –
मेरे अंतर्मन के आदित्य!
उस लौ को रखती हूँ सहेज कर
तुम्हारी सोनम धरोहर की तरह,
सदा रहते हो मेरे ही संग
मेरे रक्षाकवच मेरे सहोदर की तरह।
 

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