शुभ समाचार
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे1 May 2022 (अंक: 204, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
क्या बताऊँ अपनी व्यथा ऐ संसार
वर्षों से था इस क्षण का इंतज़ार,
भावविभोरता की सारे हदें हुई पार
है ही कुछ ऐसा यह समाचार।
मेरे मन से जिसका मन बन रहा
दिखाने है उसे मन के सारे तार,
मेरे हृदय से जिसका हृदय चल रहा
करनी हैं उससे सहृदयी बातें दो चार।
“ॐ भूर्भुवः स्वः”
जपकर दिया यह आमंत्रण
शेष शब्दांश-ग्रंथियों का
कर डाला फिर चीर हरण-
“तत्” से तापिनी से याद आया
बहुत सीमित है मेरे सफलता के मापदंड,
तुम प्रगति को एक नयी परिभाषा दिला जाना।
“स” से सफला से याद आया
हर विवाद पर लड़-झगड़ जाती हूँ मैं,
तुम पराक्रम को दयालुता से संवेदना से ही दर्शाना।
“वि” से विश्वा से याद आया
छोटे परिवार के दायित्वों को ही समझ नहीं पायी हूँ मैं,
तुम जगतकर्तव्यों को भी पूर्णतः निभा जाना।
“तुर” से तुष्टि से याद आया
जाने कितनों से कुढ़ कर बैठी हूँ मैं,
तुम इन गाँठों को खोल मानव कल्याण कर जाना।
“व” से वरदा से याद आया
अनंत अंशों में बिखरी हुई हूँ मैं,
तुम पंचकोशों के योग से सदा एकत्रित रह जाना।
“रे” से रेवती से याद आया
प्रेम को अन्यत्र खोजकर स्वयं को खो चुकी हूँ मैं,
तुम आत्ममूल्य जान पहले स्वयं की प्रेमिका बन जाना।
“णि” से सूक्ष्मा से याद आया
धन को वस्तुओं से तोलती रही हूँ मैं,
तुम दुर्लभ इंसानियत का धन अर्जित करती जाना।
“यं” से ज्ञाना से याद आया
अपने तेज को ख़ुद ही नहीं देख पायी हूँ मैं,
तुम अपनी अन्तःचिंगारी से जगत प्रज्ज्वलित कर जाना।
“भर” से भर्गा से याद आया
अनजाने में परजीवियों को पनाह दी है मैंने,
तुम सर्वप्रथम अन्तःज्योति की रक्षा कर जाना।
“गो” से गोमती से याद आया
बुद्धिमता को अंकों से आँकती रही हूँ मैं,
तुम स्नेह और दया को ही बुद्धि के सर्वोत्तम रूप बना जाना।
“दे” से देविका से याद आया
अवांछित वृत्तांतों से उभर नहीं पायी हूँ मैं,
तुम दमन से दयालुता से धैर्य से स्वयं के घाव भर जाना।
“व” से वराही से याद आया
निष्ठा के भावार्थ को सहूलियत से बदल जाती हूँ मैं,
तुम भक्ति की हर कसौटी पर खरी उतर जाना।
“स्य” से सिंहनी से याद आया
जनमान्यताओं को अपना समझ बैठी हूँ मैं,
तुम टकसालों को अनसुना कर अद्वितीय धारणाएँ बना जाना।
“धी” से ध्याना से याद आया
अपनी ऊर्जा हर दिशा में फैला देती हूँ मैं,
तुम अपने पवित्र प्राणों को पिशाचों से बचा जाना।
“म” से मर्यादा से याद आया
बिन बात प्रतिक्रिया दिखा देती हूँ मैं,
तुम उत्तेजना और अनुक्रिया के मध्य रिक्तस्थान को धरण कर जाना।
“हि” से स्फुटा से याद आया
अधजल मटकी सा शोर मचा जाती हूँ मैं,
तुम शान्ति से हर तप-साधना की प्रतिध्वनि सुना जाना।
“धि” से मेधा से याद आया
कल को भूल आज भूल कर जाती हूँ मैं,
तुम दूरदर्शिता धरण कर जीवन ध्येय को हर पल चित्त पर बिठा जाना।
“यो” से योगमाया से याद आया
अध्यात्म की सतह भी नहीं खरोंच पायी हूँ मैं,
तुम पूर्णतः जागृत हो प्रबुद्ध आत्मा बन जाना।
“यो” से योगिनी से याद आया
दिन के आधे काम अधूरे छोड़ जाती हूँ मैं,
तुम पूर्ण सक्षमता से उत्पादन का उत्तम उदाहरण दिखा जाना।
“नः” से धारिणी से याद आया
जैसे को तैसा की होड़ में कड़वी हो चुकी हूँ मैं,
तुम अंतर्मन की सरसता को हर दशा में बना रखना।
“प्र” से प्रवभा से याद आया
भेड़चाल चलते-चलते सिद्धांतों से विचलित हुई हूँ मैं,
तुम आदर्शों पर अडिग नए रास्ते बना जाना।
“चो” से ऊष्मा से याद आया
छोटे मोटे रोड़ों पर आँसू बहा जाती हूँ मैं,
तुम बड़ी बाधाओं को भी हँस कर हटा जाना।
“द” से दृश्या से याद आया
दूजों की बातों में आ घोर निर्णय ले जाती हूँ मैं,
तुम अनगिनत मतों के बीचों-बीच अपना विवेक सँभाल रखना।
“यात” से निरंजना से याद आया
अपनी ही जटिलता में उलझी हुई हूँ मैं,
तुम आत्मलीनता को त्याग सेवा को स्वभाव बना जाना।
अहोभाग्य मेरे जो
तुमने चुना मुझे शुभ योग से,
तुम भी जान लेना कि
आई हो चयन से ना कि मात्र संयोग से।
आज हर क्षुद्र मोच पर खरोंच पर,
कस के थाम लेती हूँ माँ के पल्लू को,
पर प्रसव के उन घंटों में मुँह से चू भी ना निकालूँगी,
माँ गायत्री की सौगंध!
बिन दर्दनिवारक बिन शल्यचिकित्सा तुम्हें इस संसार में लाऊँगी।
जाने क्या किया अब तक रिश्तों का मैंने
पर यह रिश्ता सम्पूर्ण समर्पण से निभाऊँगी।
विनती है तुमसे
मेरी इन त्रुटियों को क्षमा कर जाना,
इन स्वीकारोक्तियों के पश्चात भी
मेरे मातृत्व के निमंत्रण को स्वीकार कर जाना,
माना अभी हो शून्य की दूरी पर
गुणों के परिमाणों में मुझसे कोसों दूर हो जाना,
मुझ से निकल कर मुझ सी ना रह जाना,
इस संक्षिप्त गर्भ संवाद को अंतस तक ग्रहण कर जाना
और एक दिन मुझसे बहुत भिन्न बहुत बड़ी बन जाना।
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