प्रथम स्थान
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ऋतु खरे15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
हर यम द्वितीया
बस यूँ ही खा लेते हैं
दो रुपए के बताशे और
एक क़लम की सौगंध,
कि हाँ!
एक दिन हम भी लिख जाएँगे
एक बिकने वाला छंद।
विगत बरस थी सूनी दिवाली
और सूखा सा दवात पूजन,
बस क़लम की प्रतिक्रमा में
घूम रहे थे गत जीवन के चार चयन।
दादी माँ ने घंटों तक
हर एक पंक्ति को सराहा था,
विक्रयी से भी ऊँचे स्वर का
एक ढिंढोरा मारा था।
ले जो आया था
मेरा दसपंक्तीय कोआन
जीवन का प्रथम प्रथम स्थान।
एक छोर ढिंढोरा
तो दूजी ओर
जैसे बंसी से खिंचती
एक मोहित मीरा,
यूँ संक्रय कर जाती थी
नवरसों की सरिताएँ,
गतिमय भेंट जाती थी
सौ सौ शतपंक्तीय कविताएँ।
गति का तीजा नियम ही था
बन जाना दुर्गति समान,
रुक कर देखा तो
क़लम थी निशब्द
और काग़ज़ जैसे रेगिस्तान।
पर जन्म से किया बस लेखन
तो जन डाले नए प्रयोग नई शालाएँ,
क़लम तो बस एक साधन
तो भर डाली नई स्याहियाँ नई मुद्राएँ।
कवियों की लिखावट से
मण्डियों की दिखावट से
आ ही गयी क़लम मेरी तंग,
अकस्मात् हुई कमानी सी खड़ी
और स्वयं लिख डाला एक रक्तरंजित छंद—
कि तुम्हें मेरी सौगंध!
यदि बनना है सत्य में कवि से कविवर तो
पुनः सुना दो
देश को सोनचिया की चहक
पितृगणों को वाह-वाहियों की खनक,
निःशुल्क दिला दो
मातृभाषा को मूर्तितल चरम
और काव्य को वही स्थान प्रथम।
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मधु 2024/01/25 12:40 AM
आपकी इस अति उत्तम कविता को प्रथम स्थान मिलना ही चाहिए। साधुवाद।