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किस मिट्टी की बनी हो? 

रहस्य सी जन्मी थी 
रहस्य सी ही मिट्टी में समाओगी क्या? 
किस मिट्टी की बनी हो 
दर्पण में झाँक कर नहीं 
भीतर टटोल कर बताओगी क्या? 
  
मुझे गोद लिए एक नीली नदी
मैं श्वेत पवित्र, 
बोलूँ बिन छन्नी 
बिखेरूँ नवपुस्तक सा इत्र, 
थोड़ा फुसलाओ बहुत बहल जाऊँ
थोड़ा उकसाओ पूरी कथा सुनाऊँ, 
मन चाहे तो एक सेतु एक छोर
पर मैं धारा संग बहती जाऊँ, 
जैसे कोई “कागज़” की नाव। 
 
अब मेरे समक्ष एक पर्वत विशाल
समतल से चोटी तक
पहले ही बने पदचिन्हों के निशान, 
मैं पग पग ऊपर चढ़ती जाऊँ, 
यदि स्वयं की श्वेतता से सकुचाऊँ
भेड़चाल में रंगती जाऊँ, 
छोर को भूल 
ढूँढ़ रही बस संगी साथी 
मैं जैसे “लकड़ी” की काठी। 
 
अब मुझे घेरे एक हरा-भरा गाँव 
आढ़ी-टेढ़ी छटाओं में 
किंकर्तव्य विमूढ़ में भटकी, 
बहु एकपक्षीय सम्बन्ध निभाती 
स्वयं को भूल 
बनी दूजों की रंगबिरंगी प्रतिलिपि, 
जैसे आम्र बिन गुठली 
मैं मात्र “प्लास्टिक” की कठपुतली। 
 
अब मुझे छेड़े एक महानगर
चिकनी सुरक्षित सड़कें 
सुनियंत्रित यातायात की क़तार, 
यूँ नियंत्रित करती मुझे 
हर ऐरे ग़ैरे की पुकार, 
क्षण में बनाती 
क्षण में करती अंश हज़ार, 
दिशाहीन बिखरी यह चिड़िया 
मैं जैसे “कांच” की गुड़िया। 
 
अब मुझे परखे एक सुनसान मैदान
देख मुझे खंडित निराधार 
बिन धारणा पूछे एक सवाल 
कि आख़िर तुम्हें क्या चाहिए? 
 
नहीं चाहती—
मौसम सेहत सेवन जानने का व्यवहार
दूजों को देना स्वयं से अधिक महत्त्व अधिकार, 
पीठ-पीछे बेहिचक उपहास 
समक्ष नपा-तुला बोलने का ढंग, 
अतिव्यस्त होने का ढोंग 
आत्मलीन आत्मपूजक का संग, 
ख़ालीपन को भरने की ललक में सौ छिछले सम्बन्ध। 
 
जानती हूँ—
फिर श्वेत नहीं हो पाऊँगी
मैली परतें जो चढ़ी हैं अनगिनत 
तिरस्कारों, विफलताओं, त्रुटियों की, 
टूटी बिगड़ी कड़ियों, निकटों की मृत्युओं की। 
 
फिर भी चाहती हूँ—
ढूँढ़ूँ डंके की चोट पर 
वही बचपन का नकारा हुआ छोर, 
करूँ एक तपस्या बड़ी, 
बन जाऊँ स्वयं से स्वयं तक की कड़ी। 
 
हो जाऊँ यूँ रूपांतरित कि 
जब कोई चौंधियाँ कर पूछे 
किस मिट्टी की बनी हो तुम? 
तब मैं मुस्कुरा कर कहूँ 
मिट्टी से तो नहीं बनी 
पर जब मिलूँगी मिट्टी में
जलूँगी गर्व से तन के, 
घोर तप से बना 
एक “धातु” बन के। 
एक दिन अवश्य मिलूँगी 
जतन से खोदने वाले को 
सोनम सुनिधि बन के, 
लगन से खोजने वाले को 
जीवबिंदुएँ जोड़ता स्वर्णिम सेतु बन के। 

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