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कच्ची रोटी 

एक डोरी से बँधे 
अनेकों चंगे अष्टे, 
कुछ मुझसे छोटे
जो मेरे कहने पर 
जबरन बेधड़क 
दूल्हा दुलहन बन जाते थे, 
मेरे होते हुए कभी 
पोशम्पा भाई पोशम्पा में 
पकड़े नहीं जाते थे। 
तो कुछ मुझसे बड़े
जो कभी मुझे कैंची से 
सायकल चलाना सिखाते थे, 
तो कभी लुकाछुपी में 
मुझे ऊँची खिड़की में छुपा
अंत में ढूँढ़ना ही भूल जाते थे। 
अनेकों खेल 
अनेकों सहज हाव, 
छह की छह ऋतुओं में 
केवल एक सौहार्द का भाव। 
 
जितने झटके से छुटपन छूटा 
उससे दुगुनी गति से 
बीते अगले कुछ दशक, 
आज सारे अतिव्यस्त 
जीवन की आपाधापी में 
बन चुके हैं शुद्ध प्रबुद्ध वयस्क। 
अनेकों संघर्ष 
अनेकों जटिल हाव, 
अनगिनत ऋतुएँ
अनेकों मिश्रित भाव। 
 
विद्वानों से सुना है
रीत यही चली आती है, 
हर डोरी समय के 
समझ के साथ 
अंततः पूर्णतः टूट ही जाती है। 
पर क्या करूँ 
वनस्पति-कक्षा की 
वह ज्वलंत आकृति 
मानस पट से मिट नहीं पाती है, 
वृक्ष ले अनेकों रूप 
पर द्वितीयक तृतीयक जड़ें 
सदा जुड़ी ही रहती हैं, 
शायद इसीलिए वह डोरी 
हर दुखद ऋतु में 
आँसू से आँसू मिला 
मेरे आसपास ही बहती है। 
 
हाँ! 
अब हैं सौहार्द के 
अतिरिक्त अनेकों भाव 
पर है एक आशा की छाँव, 
कि आएगी एक सशब्द ऋतु, 
कि छोटों को जताऊँ 
मैं अब भी वही हूँ
तुम्हारी माँ छोटी, 
और बड़ों को बताऊँ 
मैं अब भी वही हूँ
आपकी कच्ची रोटी।

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