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पिता जी उम्र के उस पड़ाव पर

पिता जी बैठे रहते थे
उम्र के उस पड़ाव पर
चिलम पीते थे, 
एक गम्भीर सोच के साथ
धुआँ उड़ाते थे। 
चाय को घूँट-घूँट पी
गिलास लुढ़का देते थे
जैसे स्नेह के अहसास लुढ़कते हैं। 
आड़ू, खुमानी, नारंगी खाते थे, 
पहाड़ पर उतरी धूप को देख
सटीक समय बता
विद्यालय जाने को कहते थे। 
पिता जी अन्न की महिमा बता
अन्नग्रहण करते थे, 
यदाकदा खेतों को झाँक
जीजिविषा में प्राण भर 
ऊँचाई पर स्वयं चढ़ने को बोलते थे। 
जाड़ों में अंगीठी जला
अंगारों को देख, 
ख़ुश हो जाते थे। 
उनकी खाँसी
निडर बनाती थी, 
लाठी की खट-खट
आश्वस्त करती थी। 
अंकगणित के प्रश्नों पर
अपनी बुद्धि खोल, 
हमारे सामने रख देते थे, 
हम सहमे-सिमटे से
इधर-उधर देख जी चुराते थे। 
पिता जी बसंत, बर्षा, गरमी
शरद, हेमन्त, शिशिर स्वयं बन
हमें आगे उतारते थे। 

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