अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पिता जी उम्र के उस पड़ाव पर

पिता जी बैठे रहते थे
उम्र के उस पड़ाव पर
चिलम पीते थे, 
एक गम्भीर सोच के साथ
धुआँ उड़ाते थे। 
चाय को घूँट-घूँट पी
गिलास लुढ़का देते थे
जैसे स्नेह के अहसास लुढ़कते हैं। 
आड़ू, खुमानी, नारंगी खाते थे, 
पहाड़ पर उतरी धूप को देख
सटीक समय बता
विद्यालय जाने को कहते थे। 
पिता जी अन्न की महिमा बता
अन्नग्रहण करते थे, 
यदाकदा खेतों को झाँक
जीजिविषा में प्राण भर 
ऊँचाई पर स्वयं चढ़ने को बोलते थे। 
जाड़ों में अंगीठी जला
अंगारों को देख, 
ख़ुश हो जाते थे। 
उनकी खाँसी
निडर बनाती थी, 
लाठी की खट-खट
आश्वस्त करती थी। 
अंकगणित के प्रश्नों पर
अपनी बुद्धि खोल, 
हमारे सामने रख देते थे, 
हम सहमे-सिमटे से
इधर-उधर देख जी चुराते थे। 
पिता जी बसंत, बर्षा, गरमी
शरद, हेमन्त, शिशिर स्वयं बन
हमें आगे उतारते थे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

यात्रा वृत्तांत

यात्रा-संस्मरण

कहानी

ललित निबन्ध

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं