ठंडी सड़क (नैनीताल)-03
कथा साहित्य | कहानी महेश रौतेला1 May 2023 (अंक: 228, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
हर क्षण एक कहानी कह रहा है।
आज बूढ़ा वहाँ पर जल्दी आ गया है। बैठा है। इधर-उधर देख रहा है।
मैं वहाँ पर जाता हूँ और उससे पूछता हूँ, “किसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं क्या?”
वह बोलता है, “नहीं, बस यों ही बैठा हूँ। बर्फ़ देख रहा हूँ। कुछ जमी है और कुछ पिघल चुकी है। जीवन भी
ऐसा ही है कुछ है, कुछ पिघल चुका है।”
मैंने कहा, “सब कुछ याद तो नहीं रह पाता है। मेरी यादाश्त तो कुछ गड़बड़ हो गयी है। कुछ माह पहले मुझे एक लड़की ने नमस्ते किया। मैंने नमस्ते का उत्तर तो दिया लेकिन उसे पहिचाना नहीं। फिर वह स्वयं ही बोली, ‘सर, आपने मुझे पहिचाना नहीं?’ मैंने कहा, ‘नहीं।’ तो वह बोली, ‘मैं दीपिका हूँ।’ फिर सहजभाव से मुस्कुराते हुए कहती है, ‘पहले से मोटी हो गयी हूँ ना।’ तब मुझे याद आया कि वह हमारे साथ कार्यालय में थी। मैंने उससे कहा मुस्कान पहले जैसी ही है।”
बूढ़े से अब मेरी दोस्ती होने लगी है।
वह बोला, “हम तीन दोस्त थे। प्रायः ठंडी सड़क से आना जाना होता था। तीनों गाँव से आये थे। उसमें से एक प्रेम पत्र लिखा करता था। विषय होता पहाड़।
‘प्रिय पहाड़,
तुमने बहुत आन्दोलन देखे। चिपको आन्दोलन तेरी पहिचान है। वृक्ष ही तेरा परिवार है। शीतल, निर्मल जल के स्रोत अमृत समान हैं। मुझे तेरी याद सताती है। कुरकुरी घास जब तेरे बदन पर उगती है तो मेरा मन मचल उठता है। हिमालय की चोटियाँ के दर्शन मुझे शुभ्र और उज्जवल बना देते हैं। काफल, बुरांश, हिसालू आदि अपने गीत हर साल गाते हैं।’
“दूसरा दोस्त कहता, ‘यह कोई प्रेम पत्र नहीं है।
‘मैंने बी.एसी. में एक प्रेम पत्र लिखा था। मेरा प्रेम वैसा ही था जैसा प्रेम राधा और मीरा ने किया था। मुझे पत्र देने की हिम्मत तो नहीं आयी लेकिन उसकी डेस्क पर रख आया। कुछ देर उसे देखता रहा। पत्र मुझे कभी फूल जैसा लग रहा था और कभी काँटों सा। कभी लगता था एक साँप उससे निकलेगा और वह मुझे डस लेगा। परिणाम यह होगा कि विद्यालय से निष्कासित कर दिया जाऊँगा। मेरे दोस्त ने सुझाव दिया पत्र वापस ले ले उसके आने से पहले। नहीं तो पिट जायेगा आज तू। मैं घबरा तो पहले से रहा था। मैं चुपचाप गया और पत्र को वापस ले आया। यह मेरी पहली मृत्यु थी, ऐसा मुझे लगा तब।’
“पहला दोस्त बोला, ‘फिर आगे भी हुई कोई मृत्यु।’ वह बोला, ‘एक बार और हुई। वह पहले जैसी दर्दनाक नहीं थी। फिर शादी हो गयी।’ . . .
जब बूढ़ा चुप हो गया तो मैं उसे सुनाता हूँ:
“हमारे गाँव की गूल में पानी पहले से कम रहता है
नदी पहले जैसा शोर नहीं करती है,
पहाड़ पहले जैसे ऊँचे हैं
पर वृक्ष पहले से कम हो चुके हैं।
पुराने लोग कहते थे पहले जहाँ बाँज के पेड़ थे
वहाँ चीड़ उग आया है,
जहाँ बाघ दिखते थे
वहाँ सियार आ गये हैं।
प्यार के लिये नया शब्द नहीं आया है,
चिट्ठी के अन्त में
लिखा जाता था “सस्नेह तुम्हारा“
अब बस केवल संदेश होते हैं,
संदेशों में चिट्ठी की सी मिठास नहीं
अख़बारों की बू आती है
या फिर चैनलों के शिकार हैं,
पर ये कभी-कभी मीठी चाय से उबलते
हमारी ईहा बन जाते हैं।
पुरानी कथाओं में अब भी रस है
जैसे राम वनवास को जा रहे हैं
कृष्ण महाभारत में हैं,
भीष्म प्रतिज्ञा कर चुके हैं
परीक्षित को श्राप मिल गया है,
ययाति फिर जवान हो गये हैं
शकुन्तला की अँगूठी खो गयी है,
सावित्री से यमराज हार चुके हैं।”
बूढ़ा बोला, “उसी समय-काल में जाने का मन कर रहा है अभी।”
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