सब सुहावना था
काव्य साहित्य | कविता महेश रौतेला4 Feb 2019
सब सुहावना था
उस काले लिबास में
तुम सुन्दर लग रही थी
पर तब मैं चूक गया था
कहना कि "अच्छी लग रही हो।"
हज़ारों बार देखा था
पर तब मैं भूल गया था
कहना कि "अच्छी हैं आँखें।"
अचानक उस क्षण
तुम सकुचाई थी
मैं पूछ न सका कि "कैसी हो?"
उस पगडण्डी पर
तुम ठिठकी थी
पर पूछ न सका
कि "बाज़ार जा रही हो?"
जब तुम खड़ी हुई थी
कह न पाया था
कि "इतना प्यार है?"
जब स्पर्श हुआ था
सोचा-समझा,
तब दे न सका कोई वादा सहज सा।
मीलों की यात्रा में
क्षितिजों को मिलाया था
पर तुम्हें देखने पर
दुहरा न सका
वह पुराना वाक्य,
केवल बोला,"देखने आया हूँ।"
जिसके कहने पर रुका था समय,
दोहराने पर
प्रलय सा कुछ छाया था।
ऐसे एहसास आने में
युग बीत जाते हैं,
ऐसी कविता सुनने को
ईश्वर भी नीचे आ जाते हैं।
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