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मन करता है

मन करता है
दौड़ूँ और बचपन को उठा लाऊँ, 
हँसूँ, खिलखिलाऊँ देर तक, 
लड़ूँ, झगड़ूँ पलभर
फिर स्वयं ही मेल-मिलाप में बह जाऊँ। 
 
वृक्षों के लिए खाद ले आऊँ
खेत को उर्वर बना दूँ, 
पहाड़ से उतरती धूप को घड़ी बना
विद्यालय में चला जाऊँ। 
 
उपनिषदों के कथनों को
बार-बार दोहराऊँ—
“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा“
“विद्या ददाति विनयम।” 
 
दौड़ूँ और समेट कर ले आऊँ
घंटियों के स्वर
नदियों की कल-कल, 
कल की कल-कल
पक्षियों की चहक। 
 
फिर बदहवास दौड़ूँ
अनकहे प्यार की ओर, 
अनसुनी आवाज़ के संग, 
स्तब्ध, दुस्तर भावों को थपथपा 
अनछुये मन को स्पर्श कर दूँ। 

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