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मेरा गाँव 

 

अपने अन्दर गाँव ढूँढ़ता
मैं तुमसे मिलने आता हूँ, 
गगन खोजते शिखरों को
अपना प्यार दिखाता रहता हूँ। 
 
गाँव की पतली पगडण्डी में
क़दम बढ़ाता जाता हूँ, 
भूले से सपनों को
फिर जगाने आता हूँ। 
 
जीवन की लीला में
मैं गाँव बनने आता हूँ, 
सुरसरिता की कल-कल में
स्वयं मिलने जाता हूँ। 
 
हिमगिरि के घर पर बैठ
मैं गाँव लेने आया हूँ, 
जड़ होते रिश्तों को
चेतन करने आया हूँ। 
 
गाँव के सब आशीषों में
फलना-फूलना होता है, 
शुद्ध अपने अन्तःकरण में
इक गाँव हमेशा रहता है।

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