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मैं ही था जो चुप था

मैं ही था जो चुप था
और सभी तो बोल रहे थे, 
सिंह गुर्रा रहा था
हाथी चिंघाड़ रहा था, 
कुत्ता भौंक रहा था
मैं ही था जो चुप होकर भी डोल रहा था। 
 
नील गगन को देख रहा था
जीवन को तोल रहा था, 
स्नेह आभा में डूब रहा था। 
नदी-भर लम्बाई में
मछली जो तैर रही थी, 
वह भी ध्यान खींच रही थी। 
पहाड़-भर ऊँचाई पर
जो चढ़ रहा था, 
वह भी ईश्वर को ढूँढ़ रहा था। 
 
समय का व्यास बढ़ रहा था
बचपन यौवन बन चुका था, 
मुझे लगा मुझे बोलना चाहिए
बोला तो था अतिविशिष्ट
कि “प्यार बहुत करता हूँ तुम्हें,” 
तुम समझे या नहीं, पता नहीं, 
क्योंकि तुम चुप थे, मानो अनन्त लिये थे। 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2022/08/30 06:52 AM

वाह! अति सुंदर!

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