ठंडी सड़क (नैनीताल)-07
कथा साहित्य | कहानी महेश रौतेला15 Jul 2023 (अंक: 233, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
बुढ़िया मोड़ पर आते दिखी तो बूढ़ा झट से उठा और उसका चेहरा खिल गया। बोला, “वे भी क्या दिन थे। समय ने ऐसे किनारों पर हमें ला दिया जो चाहकर भी मिल नहीं पाये। हम इसी कॉलेज में थे, आज से पचास साल पहले। नैनीताल तब ऐसा नहीं था। पिछले साल गरमी में लग रहा था जैसे झील कह रही थी:
“प्रिय,
मैं तुम्हारी याद में सूखे जा रही हूँ। कहते हैं कभी सती माँ की आँखें यहाँ गिरी थीं। नैना देवी का मंदिर इसका साक्षी है। कभी मैं भरी पूरी रहती थी। तुम नाव में कभी अकेले कभी अपने साथियों के साथ नौकायन करते थे। नाव में बैठकर जब तुम मेरे जल को छूते थे तो मैं आनन्द में सिहर उठती थी। मछलियाँ मेरे सुख और आनन्द की सहभागी होती थीं। बत्तखों का झुंड सबको आकर्षित करता था। वक़्त फ़िल्म का गाना “दिन हैं बहार के . . .” तुम्हें अब भी रोमांचित करता होगा। मैं प्यार को इस पार से उस पार पहुँचाती आयी हूँ जो कभी मौन तो कभी नाचता-गाता प्रकट होता है। प्रिय, अब मैं तुम्हारे कार्य-कलापों से दुखी हूँ। तुमने गर्जों, गुफाओं, ख़ाली ज़मीन पर बड़े-बड़े होटल और कंक्रीट की सड़कें बना दी हैं। मेरे जल भरण क्षेत्रों को नष्ट कर दिया है। गंदगी से आसपास के क्षेत्रों को मलिन कर दिया है। यही गंदगी बह कर मुझमें समा जाती है। प्रिय, यह सब दुखद है। मेरे मरने का समय नहीं हुआ है लेकिन तुम मुझे आत्महत्या को विवश कर रहे हो। तुम्हारा लोभ मुझे व्यथित कर रहा है। मैं मर जाऊँगी तो तुम्हारी भावनाएँ, प्यार अपने आप समाप्त हो जाएँगे और तुम संकट में आ जाओगे। जो प्यार मेरे कारण विविध रंगी होता है, वह विलुप्त हो जायेगा। प्रिय, मेरे बारे में सोचो। अभी मैं पहले की तरह जीवन्त हो सकती हूँ, यदि भीड़, गंदगी और अनियंत्रित निर्माण को समाप्त कर दो। तुम मेरे सूखे किनारों से भयभीत नहीं हो क्या? मैंने बहुत सुन्दर कहानियाँ अतीत में कही हैं और बहुत सी शेष हैं। मैं जीना चाहती हूँ, निरन्तर सौन्दर्य निर्मित करते रहना चाहती हूँ, यदि तुम साथ दो।
तुम्हारी
प्यारी नैनी झील।”
इस बीच मेरी यादें बुदबुदायी और मैं भी बोल पड़ा:
“२०१७ में नैनीताल गया गया तो बहुत विस्मय में पड़ गया, नैनी झील को देखकर। काफ़ी पानी कम हो गया था तब, इनारे-किनारे नंगे लग रहे थे, पानी के बिना। ‘बिन पानी सब सून।’ इस हालत में इस झील को कभी नहीं देखा था। एक ऑस्ट्रेलिया के नागरिक ने कुछ समय पहले कहा था, ‘यदि नैनीताल की कुछ स्थानों पर बिखरी गंदगी को नज़रअंदाज़ कर दें, तो यह दुनिया का सबसे सुन्दर शहर है, जितने शहर मैंने देखे, उनमें।’ कुछ स्थानों से पूरे शहर को देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं। झील के जल स्तर को कम करने में आधुनिक विकास का हाथ है। भूमिगत छीजन भी हो रही है। अतीत को हम अनुभव कर सकते हैं अपने पुराने साथियों की यादों के साथ जो हवा के झोंके से आते हैं और क्षणभर में अस्त हो जाते हैं। हमारे उपनिषद में कहा गया है, ‘चरैवेति, चरैवेति।’ चलो, पहाड़ों पर, नदियों में, पुलों पर, वृक्षों के सानिध्य में, बर्फ़ में, झीलों पर, रास्तों पर, सम्पूर्ण पृथ्वी पर, गीता के शब्दों को समझकर जब श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं, ‘मैं पृथ्वी की सुगन्ध हूँ।’ नहीं जा सकते हो दूर तो, आँगन में चलो, घर पर चलो, नहीं तो मन से चलो, लेकिन चलना है। मल्लीताल में एक अंधा व्यक्ति दिखा जो अस्त होते सूरज को महसूस कर रहा था। और अपने अन्दर अपूर्व आनन्द सृजित कर रहा था। बीच-बीच में कुछ गा रहा था। ऐसा लगा वर्षों पहले भी उसे यहाँ देखा था। तब वह विकलांग की श्रेणी में था। बहुधा बोला जाता है, ‘प्यार अंधा होता है।’ वैसे कहते हैं अंधे को अंधा नहीं कहना चाहिए। उस अंधे की मुद्राओं से लग रहा था कि वह सूरज को ख़ुशी-ख़ुशी विदा कर रहा था। ध्यानावस्था में हम स्वयं ही आँखें बंद कर विराट को अनुभव करने की चेष्टा करते हैं। इतने में किसी ने मेरा हाथ पकड़ा। मैं पलटा और उसने कहा, ‘मैं आपसे प्यार करती हूँ, बाबू जी।’ और मैंने उसे उठाकर गोद में बैठा लिया। ऐसा लगा जैसे चालीस साल पहले का समय मेरी पीठ थपथपा रहा है। हवा में प्यार भरी ठंडक थी। कुछ इसे महसूस कर रहे थे और कुछ नहीं।”
बुढ़िया खाँसते हुए बोली, “अब मरा भी नहीं जाता है। प्राण पता नहीं कहाँ अटके हैं?”
बूढ़ा बोला, “मरने की बात मत करो। अभी तो स्वर्णिम समय आया है।”
गर्ज= (कुमाऊँनी भाषा का शब्द) वृक्षों, पौधों, घास के बीच भूमि पर बड़े-बड़े उबड़खाबड़ गड्ढे
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