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ठंडी सड़क (नैनीताल)-10

 

बूढ़ा और बुढ़िया बेंच पर बैठे हैं। बूढ़ा फ़ेसबुक खोलता है और बुढ़िया को सुनाता है—

“प्यार का टिकट:

आज एक समाचार पढ़ा। बागेश्वर में एक कक्षा १० का छात्र और कक्षा 9 की छात्रा को प्यार हो गया। दोनों नाबालिग हैं। घर वाले भी शादी के लिए राज़ी नहीं हैं। दोनों ने भागने की योजना बनायी। कोई उन्हें पहचान न ले अतः कक्षा 4 के एक छात्र को अपना पुत्र बनने के लिए राज़ी किया। दोनों माता-पिता के रूप में सज, पुत्र के साथ भाग कर हल्द्वानी आ गये थे। हल्द्वानी आने पर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। कहाँ जाना है, कुछ पता नहीं। उधर बागेश्वर में घर वालों ने पुलिस में शिकायत दर्ज की। बागेश्वर पुलिस ने हल्द्वानी पुलिस से संपर्क किया। पुलिस गश्ती दल ने तीनों को एक स्थान पर बैठा पाया और पूछताछ कर पकड़ लिया। घर से लोग उन्हें लेने हल्द्वानी आये और वापस घर ले गये। प्यार आदमी से कुछ अजीबोग़रीब कारनामे करा देता है। यहाँ मनुष्य मानो बर्फ़ से वाष्प बन जाता है। अमृता प्रीतम ने जब एक पत्रकार को अपनी प्रेम कहानी सुनायी तो पत्रकार ने कहा बस, इतनी सी, इसे तो एक “टिकट” पर लिखा जा सकता है। अमृता लिखती है ‘जब “साहिर” उसके घर आते थे तो बहुत सिगरट पीते थे और ठुडियाँ ट्रे में रखते जाते थे। उसके जाने के बाद वह “साहिर” की सिगरट की ठुडियाँ मुँह पर लगा कर पिया करती थी’।”

समाचार पढ़कर अल्मोड़ा मेरे मन में घूमने लगा। वह तिमंज़िला हमारा किराये का मकान। बग़ल में एकमंज़िले पर उसका घर। वह दसवीं में थी और मैं ग्यारहवीं कक्षा में। मैं शाम को कमरे के पीछे खुले भाग में खड़ा होता था। वहाँ से आकाश को देखना और सामने हरे-भरे पहाड़ को निहारना मुझे अच्छा लगता था। वह अक़्सर अपने घर के पीछे आती और देर तक वहाँ खड़ी रहती थी। घर के अन्दर लौटते समय वह एक नज़र ऊपर को देखती थी। अब मैं आकाश, पहाड़ और उसे देखने लगा था। 

धीरे-धीरे स्वाभाविक आदत, प्रतीक्षा में बदलने लगी। अब आकाश की ओर दृष्टि कम जाती थी, उसे अधिक देखने को उत्सुक रहती थी। 

जहाँ पर मैं खड़ा होता था, हमारा रसोईघर वहीं पर था और बग़ल में स्नान घर। रसोई घर से लगा एक छोटा कमरा था। वहाँ मैडम माया रहती थी। उनका पति सेना में था। वह लड़की अपनी सहेली के साथ मैडम माया के यहाँ आती-जाती थी। दोनों मकान ऐसे जुड़े थे कि पीछे से दिवालों को पार कर तिमंज़िले में आ सकते थे। वह कभी-कभी एक दिवाल से दूसरी दिवाल पर चढ़ कर आया करती थी। मैडम माया से मेरा बोलना-चालना था। रसोईघर में खाना तब हम कोयले की अंगीठी में बनाया करते थे। अंगीठी जलाना भी काम के समतुल्य हुआ करता था। लगभग दो किलोमीटर दूर कोयला मिलता था। मज़दूर (मेट) द्वारा कोयला घर लाया जाता था। 

अब पहाड़ी देखना भी बन्द हो गया था। मेरी दृष्टि सीधे नीचे जाती और उसकी प्रतीक्षा करती। उसे देख कर सम्पूर्ण उद्देश्य की पूर्ति लगती थी। ऐसा जैसे खोयी आत्मा मिल गयी हो। वह तेज़ी से आगे जाती थी और मुड़कर मुझे देखती थी। यह सिलसिला लगभग सात महीने चलता रहा। नदी जब बहती है तो अपने बहाव को रोकने में असमर्थ होती है। 

एक दिन मैडम माया के वहाँ वह अपनी सहेली के साथ बैठी होती है। मैडम माया ने मुझे बुलाया और कहा, “ये तुम्हें अच्छा मानती है।” मैं चुप रहा और वहाँ से चला गया। वे जिस रास्ते से सामान्यतः आती थी, हमारे कमरे का दरवाज़ा वहाँ पर पड़ता था। दरवाज़ा खुला रहने पर कमरे का आधा हिस्सा दिखता था। मैंने अपनी चारपाई उस स्थान पर लगा दी जहाँ से उसे आते-जाते देख सकता था। जिस दिन नहीं देखता था उसे, बेचैनी होने लगती थी। अपने स्रोत पर नदी सम्पूर्ण रूप से जगमगाती, चमकती और स्वच्छ होती है। प्यार भी लगभग ऐसा ही होता है। 

पढ़ाई का बोझ भी बहुत था। विज्ञान वर्ग में गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान को अधिक समय देना पड़ता है। प्रयोगशाला का महत्त्व भी कम नहीं होता है। साथ में एनसीसी भी अनिवार्य थी। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेना अच्छा लगता था। अल्मोड़ा हृदय की धड़कनों में जीता-जागता था। 

बारहवीं की बोर्ड परीक्षा होने वाली थी, तीन महीने बाद। उसी समय मकान मालिक के बेटे की शादी होने वाली थी। मकान मालिक ने घर छोड़ने को कह दिया। मैं अपने दोस्त के यहाँ जाने वाला था। एक साथी को मकान मालिक ने दूसरा कमरा दिला दिया था। जिस दिन मज़दूर (मेट) मेरा सामान ले जा रहा था, वह सीढ़ियों पर खड़ी थी, माया मैडम के साथ। उसकी आँखों में आँसू थे। उसने कहा, “मत जाओ।” मैंने कहा, “फिर आऊँगा।” उसकी सहेली की शादी दो महीने बाद उसी मुहल्ले में हो गयी थी, जहाँ मैं गया था। मेरा साथी मकान मालिक के बेटे की शादी के बाद माया मैडम वाले कमरे में आ गया था। माया मैडम अपने पति के साथ चली गयी थी। मैं अपने साथी के यहाँ बीच-बीच में आया करता था। लेकिन उसे फिर देखा नहीं। अड़तालीस साल बाद जब मैं उस मुहल्ले से गुज़र रहा था तो एकाएक मेरे क़दम वहाँ पर रुक गये। मैंने ऊपर की ओर देखा, खिड़कियाँ बन्द थीं। बग़ल के दुकानदार से पूछा तो वह बोला ताला लगा है। किरायेदार भी नहीं रखते हैं अब। बग़ल के परिवार के बारे में पूछा तो वह बोला वे लोग यहीं हैं। उनकी लड़की के बारे में भी जिज्ञासा हुई तो पूछ बैठा। वह बोला, “शायद आजकल आयी है।” मैं सोच में डूब गया। मैं दस क़दम आगे बढ़ गया था फिर लौटा और जिस मकान में हम रहते थे, उसकी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सीढ़ियाँ अन्दर से थीं, कम चौड़ी, लकड़ी की। जो लग रहा था हाल में ही बदली गयी हैं। ऊपर वहीं पर खड़े होकर इधर-उधर देखने लगा। वही आकाश, वही पहाड़। नीचे बार-बार दृष्टि जा रही थी। इतने में एक महिला वहाँ आयी। उसने मुझे देखा। मैंने उससे पूछा, “ये मकान मालिक यहाँ नहीं रहते हैं क्या? मैं पहले यहाँ किराये पर रहता था।” 

वह बोली, “नहीं, वे नैनीताल में रहते हैं अब।” वह बोली, “आप कब रहते थे?”

मैंने कहा, “१९७२ के आसपास।”
वह चुप हो गयी। फिर बोली, “चाय पीकर जाइये।”

मैं नीचे उतरा। अपने घर में वह अकेली थी। वह बोली, “आप चले गये, लौटे ही नहीं। पहचाना क्या?”

मैंने कहा, “पहचान लिया।” और मुस्कुरा दिया . . .

इतना पढ़ने के बाद सिगनल चला गया और इंटरनेट बन्द हो गया। बूढ़ा बोला, “चलो, हम भी मल्लीताल चाय पीने चलते हैं।”

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