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गीता-संदर्भ

 

०१.
प्रभु, एक स्वर तुम्हारा था
एक स्वर मेरा था,
तुम कहते थे धनुष उठाओ
मुझे विषाद ने तोड़ा था।
 
केशव मंद हँसी तुम हँस देना
ऐसे ही गीता कह देना,
लघु प्राणी के लिए तुम
विराट रूप में आ जाना।
 
जब विपत्ति धरा पर आती है
विश्वास सर्वत्र मरता है,
लघुता की लघु सम्पत्ति
वृक्षों सी उखड़ने लगती है।
 
अर्ध सत्य कहते-कहते
ये जीवन घराट सा घूमा है,
पाँच गाँव की चाह थाम
यह धरा लहू से बँटती है।
 
०२.
केशव व्यथा तुम्हारी भी है
युद्ध टले तुम चाहे हो,
मरने-जीने के संदर्भ छेड़
फिर गीता कहने आये हो।
 
तुम्हारे हाथ में चक्र घूमता
शठ का वध वहाँ लिखा है,
तुम सच मथ कर आये हो
मैं न मिथ्या रण में आया हूँ!
 
नहीं होता मुझमें  रंग तो
तुम भरने आते हो,
नहीं होती सुवास कोई तो
तुम देने आते हो।
 
०३.
केशव रथ को हाँको तो
वीर भूमि को देखो तो,
दैवीय इस मुस्कान को
मेरे विषाद से जोड़ो तो।
 
बन्धु-बान्धव उधर खड़े
मेरे चित्त को घेरे हैं,
तीर चलना व्यर्थ लगे
ऐसे विचार मन में हैं।
 
मन के घोड़े दौड़ रहे हैं
तुम सारथी बनकर बैठे हो,
नव शरीर में इस जीव का
गमन सदा  बताते हो।
 
मरना यहाँ सत्य नहीं
आत्मा शाश्वत चलती है,
तुम कहते हो,समझाते हो
जिज्ञासा फिर-फिर आती है।
 
०४.
राधा का स्पर्श मिला तो
प्रेमी बन रह जाते हो,
युद्ध भूमि के मध्य खड़े
त्रिकालदर्शी हो जाते हो।
 
रण भूमि के बीच पार्थ
कर्म  पर अधिकार श्रेष्ठ ,
यह मंतव्य तुम्हारा केशव
मन मानता संबंध श्रेष्ठ।
 
केशव जीवन साथ है
मृत्यु कब तक शेष है!
इस महाज्ञान के सागर में
क्यों यह कर्म महान है!
 
कह दो केशव मूल मंत्र को
मैं प्रश्न हूँ, तुम उत्तर हो,
जो कहा न गया वह तुम हो
जो अज्ञेय है वह तुम हो।
 
०५.
यह भूमि तो जय भूमि है
सोचो पार्थ यहाँ मिलन है,
इसी पृथ्वी की सुगन्ध बना हूँ
इस धरती से ऊपर मैं हूँ।
 
इस पथ को पार करो
न्याय का साहचर्य करो,
मैं इस भूमि का युद्ध नहीं हूँ
पर युद्ध से विमुख नहीं हूँ।
 
केशव जो विगत था वह तुम हो
जो कह रहे हो वह तुम हो,
जो कहना है वह तुम हो
जो सर्वत्र है वह तुम हो।
 
०६.
केशव मुझमें मौन पसरा है
इस विषाद का कारण क्या है?
तात खड़े हैं,युद्ध खड़ा है
रिश्तों का अंबार लगा है।
 
मेरे आगे मौन समय है
उस अतीत का चित्र लगा है,
केशव मेरे कर्मयोग में
कितना सुख, कितना दुख है?
 
पार्थ, सारे सुख में मैं रहता हूँ
सारे दुख भी मेरे हैं,
लाभ रहा हूँ,हानि रहा हूँ
जय -पराजय मैं ही हूँ।
 
०७.
इस नभ में तुम हो केशव
उस नभ में भी तुम हो केशव,
हर लोक की गाथा में
आभास तुम्हारा जीवित केशव।
 
वृहद मौन के ज्ञाता तुम हो
लय-प्रलय में विलीन रहे हो,
प्यार के प्रखर प्रतीक बन
सेनाओं का संगीत सुने हो।
 
०८.
खोज-खोजकर भटका हूँ
तुम मेरे सखा हो केशव,
मेरे अन्दर युद्ध छिड़ा है
तुम मुस्कान में रहते केशव।
 
तुम धर्म में बाँध रहे हो
मैं रिश्तों में बँधा हूँ केशव,
तुम ज्ञान की महिमा कहते
मैं सांसारिक यहाँ हूँ केशव।
 
०९.
सुख की पीड़ा कुछ और रही
दुख की पीड़ा कुछ और रही,
कुरुक्षेत्र की इस भूमि में
युद्ध की व्याख्या कुछ और रही।
 
केशव, ज्ञान का व्याख्यान हुआ
विषाद का अवसान हुआ,
विराट रूप में तुम ही तुम
मुझे सखा का अवदान मिला।
 
१०.
इस युद्ध में क्या है केशव
किस महिमा को देख रहे हो,
कौन यहाँ आकर चुप है
तुम किस सार को ढूंढ रहे हो?
 
इस रण में क्या है केशव
जो अन्यत्र समस्त अस्त रहा है,
रिश्ते प्रचुर मर जायेंगे
कौन किधर रह जायेंगे?
 
११.
उत्तर तुम्हारा बहुत सटीक है
कर्मयोग ये बहुत विकट है,
बन्धु सामने खड़े- खड़े
केशव, शाश्वत रूप कहाँ रहा है?
 
पार्थ, जीवन की व्याख्या करता
इस युद्ध का संदर्भ बड़ा है,
हम रण-भूमि में खड़े-खड़े
यहाँ विगत नहीं, शाश्वत खड़ा है।

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