नैनीताल यात्रा एक विकल्प (08.06.25)
संस्मरण | यात्रा वृत्तांत महेश रौतेला1 Jul 2025 (अंक: 280, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
हल्द्वानी से घर के लिए निकला।
लेकिन कोई भी कार वाला जाने को तैयार नहीं था। बोल रहे थे कैंची (नैनीताल) में भयंकर जाम लगा है, लगभग दस किलोमीटर का। मैंने हनुमानजी को याद किया और कहा भगवन भक्ति कराइये लेकिन जाम से मुक्ति दिला दीजिये, इस राह को।
यहाँ एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब, सत्तर के दशक में और बाद में फ़ेसबुक के संस्थापक ज़ुकरबर्ग भी आये थे। हाल के विराट कोहली, क्रिकेटर भी यहाँ देखे गये। विकल्प नहीं सूझ रहा था। फिर मन में आया नैनीताल होकर आऊँ।
नैनीताल की कार में बैठा और काठगोदाम पर पैंतालीस मिनट का जाम मिल गया फिर आगे बिना रुकावट के चले। सह यात्रियों से बातचीत होती रही। एक जगह पर उन्होंने कहा नीचे नदी में कल एक व्यक्ति डूब गया था। उसे जाना कहीं और था लेकिन कार्यक्रम बदल कर, इधर आया। किसी ने उसे बताया कि नीचे नहाने के अच्छा तालाब (र) है। सुनते ही उसने गाड़ी रोकी और नहाने का मन बना लिया। फिर ख़बर मिली कि वह तालाब (र) में डूब गया है। शायद नदी के तालाब में भँवर था जिसने उसे खींच लिया। सभी अफ़सोस व्यक्त कर रहे थे। कार मोड़ों को पीछे छोड़ती आगे बढ़ रही थी। जेल के पास कार में आगे बैठी महिला उतरी। तो ड्राइवर ने कहा, “ये यहाँ पर क्यों उतरी होगी!” फिर स्वयं ही बोला, “शायद कोई जानने वाला जेल में हो। एक दिन पहले धर्मशाला पर उतरी थी। बहुत पैसे वाले हैं। बता रही थी स्कूल खोला है। बागेश्वर में बहुत ज़मीन है।” फिर बोला चलो, “हमें क्या लेना!” अन्य दो सह यात्री हाँ में हाँ मिला रहे थे।
तल्लीताल उतरा, चाय पी। एक दृष्टि नैनी झील पर फेरी। गाँधी जी की प्रतिमाएँ एक की जगह दो हो गयी हैं। एक डाँडी मार्च वाली दूसरी बैठी हुई, शायद सूत कातती। ख़ाली तो वे बैठते नहीं थे। अपने प्रिय स्थान को देखा और देखता रहा। पुराने बस अड्डे का जीर्णोद्धार हो चुका है। पास में साफ़-सुथरा शौचालय भी बन चुका है। फिर सोचा रानीखेत के लिए कार ढूँढ़ी जाय। पर कार नहीं मिली। कार्यक्रम फिर बदला। मल्लीताल ई-रिक्शे में पहुँचा। पन्त जी की प्रतिमा पहले के स्थान से खिसक कर थोड़ी दूरी पर खड़ी थी। “मामू” की दुकान से एक किलो बाल मिठाई ली। सोचा, अपने पुराने परिचित से भेंट कर आऊँ। अयारपाटा में जहाँ तक वाहन जाते हैं वहाँ तक वाहन में गया। फिर टिफ़िन टोप की ओर पैदल चल पड़ा। अब टिफ़िन टोप जाने के लिए सैलानियों से पचास रुपये प्रति व्यक्ति टिकट लिया जाता है, वन विभाग द्वारा। यह वन क्षेत्र (अयारपाटा) 1976 से संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है जिसके कारण अभी भी घना है। सैलानी कुछ आराम से कुछ हाँफते हुए दिख रहे थे। दो नौजवानों ने कहा, “काका अपना सामान हमें दे दीजिए।” मैंने कहा, “हल्का है आप लोग चलिये, मैं धीरे-धीरे आता हूँ।” कोठी की ओर मुड़ा तो लिखा था ‘यह आम रास्ता नहीं है। कुत्तों से सावधान।’ मेरे परिचित अभी 83 साल के हो चुके हैं। मैंने फोन लगया लेकिन फोन किसी ने नहीं उठाया। मैं क़दम-क़दम आगे बढ़ा। फिर आवाज़ लगायी। उनका नाती ऊपर से झाँका। मैंने अपना परिचय दिया वह अन्दर गया और वे फिर नीचे मुझे लेने आये। और गले लगा लिया।
बोले, “सैंतालीस साल बाद श्रीकृष्ण-सुदामा मिलन हो रहा है।”
मैंने कहा, “बहुत अच्छा लग रहा है।” देखा, कोठी के चारों ओर हरियाली छायी हुई है। जिस कमरे में मैं रहता था, उसे उन्होंने अब बैठक बना लिया है। चाय पी और टिफ़िन टोप की ओर हम दो वरिष्ठ नागरिक चल पड़े। ऐसा लग रहा था जैसे दो पर्वतारोही हराभरा “सागर माथा” चढ़ रहे हों। यादों का कारवाँ दौड़ने लगा था। रास्ते के दोनों ओर घना जंगल पसरा है। साल, देवदार, बाँज, बुरूंश, काफल आदि के साथ निगाल (निङाउ) के पौधे बहुत मात्रा में दिख रहे हैं। पहले से जंगल अधिक घना हो गया है। इसका एक कारण पशुपालन (गाय) में कमी बतायी जा रही है। टिफ़िन टोप में पहले एक दुकान थी, अब तीन हो गयी हैं। डोरोथी सीट पिछले साल (2024) ढह चुकी थी। वहाँ से विशालकाय पत्थर नीचे चले गये हैं। शेष भाग में भी दरारें दिख रही हैं। हमने एक नौजवान से फोटो खींचने का अनुरोध किया। उसका समूह जयपुर से आया था। कुछ पलायन की बात हुई। उसने कहा, “इतनी अच्छी जगह नहीं छोड़नी चाहिए।”
उस ऊँचाई से एक दृष्टि दौड़ाई तो मन आया:
“प्रिय शहर की प्रिय बातें
उगते सूरज सी लगती हैं।
कहाँ गया मित्रों का झुंड
जो प्रेम पत्र से दिखते थे!”
हम दुकान पर बैठे। शाम होने को थी। फिर हम वृक्षों के बीच से धीरे-धीरे राह में आगे बढ़ रहे थे। मन कह रहा था, “यादो पत्थर न हो जाना, हो सके तो वृक्ष बन जाना।”
कोठी पर पहुँचकर पुराने–नये निर्माण-विन्यास पर बातें हुईं। चाय पी। घर की चाबी वे अपने पास ही रखते हैं। भारत की वर्तमान विदेश नीति पर क्षणिक चर्चा हुई। मैं तीन-चार घंटे के लिए गया था लेकिन उन्होंने जाने नहीं दिया। रात वहीं बितायी। सुबह धीरे-धीरे मल्लीताल तक पैदल आया। रास्ते अब नीचे की ओर सीमेंट के बन गये हैं। ढलान अधिक हो गयी है। पैरों पर ज़ोर पड़ता है उतरते समय। रास्ते घुमावदार अच्छे होते हैं, जीवन की तरह। फिर ई-रिक्शा की सवारी। अपने कॉलेज को देखा और एक तन्मयता मन में समा गयी। मन ने चुपके से कहा:
“कहाँ गया मित्रों का झुंड
जो प्रेम पत्र से दिखते थे!”
तल्लीताल में चाय पी। चाय 15 रुपये की थी। मैं ठीक पंद्रह रुपये चायवाले को देता हूँ। वह खुदरा रुपये देने के लिए धन्यवाद देता है। ख़ुशी कभी भी, कहीं भी छोटी-छोटी बातों में मिल सकती है, ऐसा लगा। क्षणभर के लिए धुन्ध आयी और फिर स्वच्छ, खिली सुबह मन को छूने लगी। कार में बैठा और नैनीताल पीछे छूट गया।
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