किसे दोष दूँ
काव्य साहित्य | कविता महेश रौतेला15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
गगन खुला था, मैं सोया था
किसे दोष दूँ, स्वप्न झूठा था।
वन कटा था, मैं चुप बैठा था
किसे दोष दूँ, कटाव विकट था।
राह खुली थी, मैं बैठा था
किसे दोष दूँ, मैं चला नहीं था।
स्नेह बहुत था, मैं रूठा था
किसे दोष दूँ, मैं टूटा था।
समय स्वच्छ था, मैं उद्विग्न था
किसे दोष दूँ, मैं अस्वस्थ था।
तुम पास थे, मैं दूर था
किसे दोष दूँ, मिलन नहीं था।
स्थान पवित्र था, मन व्यथित था
किसे दोष दूँ, कुछ दिखा नहीं था।
जनता अद्भुत थी, लक्ष्य निकट था
किसे दोष दूँ, भ्रष्टाचार विकट था।
गीत खुले थे, लय शुद्ध था
किसे दोष दूँ, मन मलिन था।
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