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अनारकली

"ऐ! चुप रह। जब देखो तब मुस्कुराती रहती है, ठी-ठी-ठी-ठी हँसती रहती है। न कोई सोच, न कोई चिंता। थोड़ी भी शरम है?" दीपा की भाभी ने कहा।

"किस बात की शरम भाभी? क्या किया है मैंने? कौन-सा ग़लत काम किया है जो शरमाऊँ?" दीपा बोली।

"क्या किया है? मुझसे पूछती है? अपने से पूछ।"

"क्या पूछूँ? बताओ तो? ... क्या?"

"पूछो न अपने से? तुम्हें कोई चिंता-फिकर है? प्रेम जी गये तो गये-अपनी ज़िन्दगी से गये। तुम्हारा कुछ बिगड़ा क्या?"

"तुम्हीं जानती हो मेरा कुछ नहीं बिगड़ा? मेरा नहीं बिगड़ा तो किसका बिगड़ा? बताओ? मैं जो सहन कर रही हूँ, वह मैं ही जानती हूँ। आज मैं ही तीन-तीन बच्चे लेकर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर हूँ। वे रहते तो मैं जाती दूसरे के द्वार पर काम करने?"

"हाँ... इसीलिए फ़ैशन करके जाती हो काम करने...।"

"मैं मजबूरी में काम करने के लिए निकलती हूँ। तो क्या करूँ घर से बाहर निकलते समय फटा-चिथड़ा देह पर डाल लूँ क्या? जैसे पहनती थी, वैसे पहनती हूँ।"

दीपा की भाभी आज किसी तरह उसके दिल को अपने व्यंग्य-बाणों से बेध देना चाहती थी। यह सुनते ही हाथ नचाकर बोली उठी, "और लो! कहती है जैसे पहनती थी, पहनती हूँ! अरे... ये बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है क्या कि अब नहीं पहनना है तुम्हें वैसे... नहीं सजना है तुमको पहले की तरह...। समझती ही नहीं है यह तो! अगर पहनना ही चाहती हो तो पहनो ननद रानी। पर ज़रा पता लगाना कि क्या कहते हैं सब तुम्हारे बारे में...।" यह कहकर सुनीता मुस्कुराने लगी।

यह सुनकर दीपा तड़प उठी। बोली, "क्या?... क्या बोलते हैं तुम्हीं बताओ न?"

भाव बनाते हुए सुनीता बोली, "मैं क्या बोलूँ? तुम ही पूछ लेना किसी से। तुम्हारे बारे में लोग अच्छा नहीं कहते हैं। कहते हैं रोज़ इतना बन-सँवर कर कहाँ जाती है?... कौन-सा काम करती है? यह सब सुन-सुनकर मेरा भी माथा नीचा हो जाता है।"

अब तक तो दीपा वाक्-युद्ध में मोर्चा सँभाल रही थी, परंतु यह सुनते ही आहत हो गयी। रोते हुए बोली, "रोज़-रोज़ तुम मुझे बोलती रहती हो। सच तो यही है कि तुम्हें मेरा और मेरे बच्चों का जीना देखा नहीं जाता। मैं तुम्हारा क्या बिगाड़ती हूँ? और कुछ नहीं मिलता कहने को तो कहती हो कि वह तुम्हारे बारे में ऐसा बोलता है... वह वैसा बोलता है...।"

यह कहते हुए दीपा फफक कर रोने लगी। उसकी पतली आवाज़ में रुलाई की गिंगियाहट चारों ओर गूँजने लगी। सुनीता उसे रोती हुई देखकर भीतर-ही-भीतर संतुष्ट हुई और वहाँ से चली गयी। दीपा देर तक वहीं बैठी घुटनों में सिर डाले रोती रही।

अब यह रोज़ का ही क़िस्सा बन चुका था। आज फिर सुनीता उसे इस तरह फटकार बैठी थी। पति के गुज़र जाने पर ही तो विवश होकर उसे भाई की शरण में आना पड़ा था। दीपा बार-बार पछताती थी कि वह अपने पति के गुज़र जाने के बाद क्यों बड़े भाई की बगल में आकर रहने लगी। लेकिन इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प भी तो उसके लिए नहीं था। इस सामाजिक सोच से कि स्त्री के सिर पर किसी भी रिश्ते के पुरुष का साया रहना ज़रूरी है वह मुक्त नहीं थी और मुक्त हो भी नहीं सकती थी। वह अलग एक कोठरी लेकर अपने तीनों बच्चों के साथ रह रही थी। भले ही भाई की बगल में थी वह कोठरी। पर अपना ख़र्च वह स्वयं ही उठा रही थी। आर्थिक तंगी हल करने का प्रयास लगभग छः महीने तक करती रही। जब नहीं सफल हो पायी तो भाई से कोई नौकरी लगवा देने के लिए कहना ही पड़ा। तो भाई ने साड़ियों की दुकान में सेल्स गर्ल की नौकरी ढूँढ़ दी। ढाई हज़ार रुपये महीने की इस नौकरी के बारे में सुनकर दीपा इतनी ख़ुश हुई कि उसका आह्लाद फूट-फूटकर उसकी आवाज़, उसके अंग-संचालन और उसे चेहरे से छलकने लगा। दुकान में जब काम पर गयी तो सजी हुई रंग-बिरंगी साड़ियों को देख-देखकर जितनी ख़ुश हुई, उससे अधिक अधीर हो गयी कि काश! ऐसी सुन्दर-सुन्दर साड़ियाँ उसके पास होतीं। शुरू-शुरू में साड़ियाँ दिखाने काम उसे बहुत अच्छा लगता था। ग्राहकों के आगे साड़ियाँ खोल-खोल कर जितना दिखाती, उससे अधिक ख़ुद देखती और तब उसके दिल में कई ख़ूबसूरत साड़ियों को अपना लेने की चाह ज़ोर पकड़ने लगती। पर धीरे-धीरे उसे पता चल गया कि दिन-भर साड़ियों को फैलाकर दिखाने और फिर उन्हें तहाने जैसा उबाऊ काम कोई दूसरा नहीं हो सकता था। इस नौकरी के कारण उसकी दिनचर्या काफ़ी तनाव-भरी हो गयी थी। सवेरे बच्चों को स्कूल भेजकर वह घर से निकलती। बच्चे स्कूल से लौटते तो मामा के यहाँ चले जाते। सुजाता उसके साथ कैसा बर्ताव करती थी, यह भी उसे अपने बच्चों से मालूम होने लगा था। रात के आठ बजे वह दुकान से छूटती तो पूरी तरह से थकी हुई नौ बजते-बजते घर पहुँचती। इस काम में टिक पाना बहुत ही कठिन साबित हो रहा था। अतः मुश्किल से कुछ महीने बीते होंगे कि उसने यह नौकरी छोड़ दी, पर चार साड़ियाँ छूट वाली क़ीमत पर लेना न भूली।

अब उसके आगे यही सवाल था कि वह कौन-सा काम करे कि उसकी और उसके बच्चों की परवरिश हो सके? ले-देकर अब घर का काम ही था जिसे वह कर सकती थी और इसके लिए वह मानसिक रूप से अपने को तैयार करने लगी थी। झाड़ू-पोंछा-बर्त्तन का काम करके वह अपनी नज़रों में ही दीन-हीन बनना नहीं चाहती थी। खाना बनाने का काम वह ढूँढ़ने लगी थी, पर इस काम के लिए भी उसने अपने को मानसिक रूप से तैयार कर लिया यही सोचकर कि छोटी और अभाव से भरी गृहस्थी में भी गृहस्वामिनी बनकर रहने का जो गर्व था उसे तो अब टूटना ही लिखा था। तो यही सही। कहाँ-कहाँ से टूट कर वह घर में खाना बनाने का काम करने के लिए तैयार हुई थी। आर्थिक भँवर से बचने के लिए और कोई विकल्प उसके पास नहीं था। उसने अपने जान-पहचान वालों से कहना शुरू किया कि किसी जाने-सुने घर में उसके लिए यह काम ढूँढ़ दे।

आख़िर एक जगह काम मिला जिससे उसे कुछ राहत तो मिली, पर उससे मिलने वाली पगार उसके अपने और उसके बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसीलिए वह एक और काम की तलाश में लग गयी थी। उसे शुरू से ही खाना बनाने का शौक़ था। पर जब खाना बनाने के शौक़ ने चाकरी का रूप ले लिया तो घर से काम के लिए निकलते ही वह अपनी बेबसी से रू-बरू होने लगती थी। इतना ज़रूर था कि वह पूरी तरह से सज-सँवरकर निकलती तो यह एहसास दब जाता था।

सुंदर दिखने और पहनने-ओढ़ने की चाह बचपन से ही थी उसे। छोटी थी तो पर्व-त्योहार पर ख़रीदे जाने वाले कपड़ों का बेसब्री से इंतज़ार करती थी। शादी के बाद तो उसे लगा जैसे कि सजने-सँवरने के दिन अब शुरू हो गये। अपने प्रति प्रेम से तरह-तरह की साड़ियाँ मँगवाती थी। ख़ूब शृंगार करके अपने को आईने में देखती और निहाल हो उठती। हमेशा मुस्कुराते रहने की उसकी आदत उसके सुन्दर रूप को और भी मोहक बना डालती थी। हर बात में शरमा जाना, कम बोलना और नज़रें झुकाये हुए अपनी राह चलना-इन सब बातों से वह चलती-फिरती नायिका लगती थी। रास्ते में अगल-बगल नज़र डालती तो भयभीत हिरनी की तरह। तीन बच्चे होने के बाद भी चेहरे का कच्चापन बना हुआ था कि अगर वह स्कूल ड्रेस पहनकर निकल जाती तो कोई उसे आठवीं की छात्रा समझ लेता। पर उसका पति प्रेम उसे छोड़ कर चला गया और वह रह गयी अपनी ख़ूबसूरती, मारक अदाओं और सजने-सँवरने के मोह के साथ।

जब वह पहले दिन हरीश निगम के यहाँ जाने के लिए निकली थी तो इस तरह जैसे किसी से मिलने जा रही हो - सस्ते शिफॉन की साड़ी और कसी हुई ब्लाउज़ पहने, पैरों में नग-जड़ी चप्पलें डाले, नाखूनों पर चित्रकारी और सस्ते प्रसाधनों की गमक बिखेरती उसने हरीश निगम के दरवाज़े का कॉल बेल बजाया। मिसेज निगम ने दरवाज़ा खोला तो उसे ऊपर से नीचे तक अकचकायी-सी देखती रह गयीं। लड़की सुंदर भी है और अपने हिसाब से पूरी फ़ैशनेबल भी। मन लगेगा इसका काम में? हो सकता है दो दिनों बाद ही काम छोड़कर बैठ जाये या कुछ करना-धरना आता ही न हो। अब तो जो होगा देखा जायेगा। उन्हें मालूम हुआ था कि यह मध्यवर्गीय खाते-पीते परिवार से है और मजबूरी में काम करने निकली है। यह बात तो उसकी वेश-भूषा और देह-भाषा से ही ज़ाहिर हो रही थी। सचमुच, इसके लिए काम करने के लिए बाहर निकलना मुश्किल हुआ होगा। पर... क़िस्मत... जो न करवाये! मिसेज निगम दो पल तक उसे निहारती हुई सोचती रह गयी थीं। परन्तु उनकी दुराशा के विपरीत दीपा अच्छा काम करने लगी थी। ख़ूब मन लगाकर प्यार से खाना बनाती थी वह। सब्जी का मसाला भूनती तो इस तरह कि उसकी गंध घर की हवा में तैरने लगती। मिर्च खाने और डालने में अव्वल थी जिसके कारण अक्सर मसालों में मिली मिर्च की तीखी गंध घर के लोगों के कंठ में समाकर खाँसी उठवा देती।

"अरे दीपा! क्या कर रही हो? मिर्ची ज़्यादा पड़ गयी है, कम डाला करो।" मिसेज निगम बोलतीं।

पर इसके वावजूद जब उसके हाथ का बनाया खाना सामने आता तो सब खाकर तृप्त हो जाते। उसकी पाक कला की तारीफ़ अनायास सबके ओठों से झरने लगती और दीपा को इसी बात से पूरी तसल्ली मिल जाती। वह मुस्कुराती हुई आती और मुस्कुराती हुई लौट जाती।

सुनीता अपने घर के द्वार पर बैठी-बैठी उसे आते-जाते देखती रहती। यह मुस्कुराहट उसके दिल में नश्तर की तरह चुभ जाती। वह चाहती थी कि किसी तरह उसके ओठों की मुस्कान ग़ायब हो जाये। वह रोज़-रोज़ नये-नये कपड़े पहनती है तो क्यों? वह बाहर गुलामी करके भी मुस्कुरा रही है और वह घर में रानी बनकर भी नौकरानी बनी हुई है। उसके दिमाग़ में तरह-तरह की कुटिल योजनाएँ आकार लेने लगतीं। वह क्यों सज-धजकर दीपा की तरह सुन्दर नहीं लगती, जबकि उसका रंग दीपा से ज़्यादा है? दीपा से अधिक महँगे कपड़े पहनकर और उससे हैसियत में ज़्यादा होकर भी, चाहकर भी वह उस तरह मुस्कुरा नहीं पाती तो क्यों? उसके चारों ओर ख़ुशियाँ हैं- पति, बच्चे, घर-द्वार, पैसा। दीपा पति खोकर आर्थिक संकट की आँधियों को झेलती हुई भी मुस्कुराती रहती है। आख़िर कौन-सी जड़ी-बूटी है उसके पास? यही बात सुनीता को खलती थी। जब से वह खाना बनाने का काम करती हुइ्र थोड़ी इत्मीनान हो चली थी अपनी ज़िन्दगी की ओर से, सुनीता के लिए सहन करना मुश्किल हो गया था। इसीलिए आज वह सुबह-सुबह झगड़ बैठी थी।

रो-धोकर दीपा चुप हुई तो देखा काफ़ी देर हो चुकी है तो वह काम पर न जा सकी।

दीपा के लिए आसान नहीं था तीन बच्चों को देखना और सवेरे शाम खाना बनाने के लिए जाना। थकान से शरीर टूटने लगता। दो पल आँखें मूँदने के लिए भी तरस जाती वह। सवेरे-उठकर दो बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजती- एक बेटा और एक बेटी को। सबसे छोटे वाले को घर में छोड़कर जाना होता था तो उसे सुनीता के यहाँ रखना उसकी मजबूरी बन जाती। काम पर से लौटती हुई सबसे पहले वह छोटे बेटे को लेने के लिए भाभी के पास पहुँचती। उसे लेकर ज्योंही अपनी किराये की कोठरी में क़दम रखती कि वह शिकायत करने लगता कि वहाँ उसके साथ क्या-क्या हुआ। किसी ने धकेल दिया, तो किसी ने मुँह चिढ़ा दिया या ऐसा ही कुछ। सुनीता स्वयं उस पितृहीन बच्चे को व्यंग्य-बाणों से बींधने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी जिसे वह बालक भी समझ जाता था। दीपा जानती थी कि इन बातों में सच्चाई थी। उसे रोज़ ही यह सब सुनकर आहत होना पड़ता था। परंतु कोई चारा न था-ख़ासकर छोटे बच्चे के लिए जो स्कूल भी नहीं जाता था। उसने सोचा कि सुबह में तो उसे सुनीता के यहाँ रखना ही पड़ेगा। परंतु शाम को सभी बच्चों को कोठरी के बाहर खेलने के लिए कह कर वह काम पर जाने लगी थी। जाने के पहले वह उन्हें समझाती, देखो, लड़ाई-झगड़ा मत करना। मैं जल्दी आऊँगी। और देखो अगर कोई बात हो तो...-।" बाक़ी शब्दों को वह अपने ओंठों के भीतर ही छोड़ देती। कोठरी में ताला बंदकर निकल जाती।

अब उसे दो घरों में काम मिल गया था, इसलिए वह काम जल्दी-जल्दी निपटाने लगती। खाना बनाने का शौक़ हवा हो चुका था। अब वह भूल जाती कि क्या बना रही है। कभी मसाला न भुनता, तो कभी आटा कम गूँथती। कभी सब्जी पूरी न ग़लती तो कभी दाल में छौंक न लगाती। अक्सर कच्चा-पक्का खाना बनाने के लिए उसे सुनना पड़ जाता। हड़बड़ाती हुई वह घर लौटती।

पर इन जले-तपे दिनों में भी उसका शौक़ धूमिल न हुआ था। तरह-तरह की साड़ियाँ तो थीं ही उसके पास। इधर उसने जब से लड़कियों को अनारकली पहनते हुए देखा था, उसके दिल में भी अनारकली पहनने की चाहत जाग उठी थी। हाय! अनारकली क्या सजती है बदन पर! उसे याद आता कि प्रेम न जाने क्यों कहता था, "देख, तू साड़ी में कितनी अच्छी लगती है। साड़ी ही पहना कर। और तू न? कभी दोटंगी मत पहनना। औरत तो साड़ी में ही निखरी-निखरी लगती है। तू जितनी चाहेगी मैं उतनी साड़ियाँ तुझे लाकर दूँगा।" ऐसा वह तब कहता जब नशे में होता, लेकिन नशा उतरने के बाद भी उसने दोटंगी कभी न ख़रीदी उसके लिए। यह याद आते ही अकेले में भी उसकी हँसी छूट जाती। ... दोटंगी...- पर अब तो उसने दोटंगी पहनने का मन बना ही लिया था। वह इस बार पगार मिलने पर ख़रीदेगी अनारकली सूट... दोटंगी।

और उस बार जो दीवाली के पहले पगार मिली तो उसने सारी की सारी कपड़ों में ख़र्च कर डाली। बच्चों के लिए ले लिये कामचलाऊ। अपने लिए ख़रीदा था गहरे नीले रंग का ज़रीदार किनारेवाला अनारकली सूट, ज़रीदार दुपट्टे के साथ। उसने सोचा कि बच्चे अभी क्या समझते हैं? बड़े होंगे तो पहनेंगे मनपसंद कपड़े!

दीवाली के दिन नया सूट पहनकर उसने अपने को आईने में देखा और ख़ुद पर ही रीझ गयी। महीना-भर पहले गाँव गयी थी तो वहाँ से अपने लिए नकली पायल ख़रीदी थी। उसने पैरों में वही पायल पहनी। घेरवाली अनारकली के नीचे से चूड़ीदार में लिपटे दो गोरे-गोरे पैर झाँक रहे थे पायलों से सजे हुए। उसने सोचा कि उसके पैर कितने सुंदर लग रहे हैं! जी करता है अपने ही पैरों को निहारती रहे वह। और यह नीला सूट उस पर कितना अच्छा लग रहा है जैसे मोर हो वह-हरे-हरे वन में साँवले मेघों के नीचे अपने चित्तीदार पंख फैलाकर नाचता हुआ मोर! अगर अभी प्रेम जीवित होता तो उसे देखकर कहता क्या कि दोटंगी मत पहन? नहीं, ज़रूर ख़ुश होता। अचनाक दुःख की एक लहर उसके भीतर उठी और उसका मुस्कुराता चेहरा उदास हो गया। फिर भी पूरे आत्मविश्वास के साथ वह अपने तीनों बच्चों को साथ लेकर बाज़ार के लिए निकल पड़ी। सुनीता घर के बाहर ही बैठी थी। दीपा ने उसे देखा तो अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया जैसे उसे देखा ही न हो और बच्चों का हाथ थामे आगे बढ़ गयी। वह बच्चों को पटाखे और फुलझड़ियाँ दिलवाने जा रही थी।

बच्चे अपने हाथों में रॉकेट, अनार, फुलझड़ियों के पैकेट थामे लौटे और आते ही पटाखे और फुलझड़ियाँ छोड़ने में लग गये। दीपा को पहली बार लगा कि वह अपनी मेहनत से अपने और अपने बच्चों के लिए ख़ुशियाँ जुटा सकती है। वह पूरे संतोष के साथ बच्चों को हँसते-खेलते देखकर सुखी हो रही थी। पति के गुज़र जाने के बाद अभाव और संघर्ष का ताप इन छोटे-छोटे बच्चों को भी झेलना पड़ा था। अब सब हँसते हुए कितने अच्छे लग रहे थे! उसकी आँखें भर आयीं। पटाखों के शोर और फुलझड़ियों की रंगीन चकाचौंध के बीच उसे प्रेम बहुत-बहुत याद आया। कहीं बच्चे उसे रोते हुए न देख लें। यदि ऐसा हुआ तो वह इन आँसुओं का अर्थ उन्हें नहीं समझा पायेगी। वह वहाँ से हट गयी।

अगले दिन काम पर जाते समय उसने अपना वही नया अनारकली सूट पहन लिया। रास्ते में देखने वाले उसे देखते ही रह गये। सुनीता के दिल में उसका अनारकली पहनना कील की तरह चुभ गया। दो-तीन दिनों तक तो वह चुप रही और मौक़ा तलाशती रही। उस दिन शाम को दीपा कमलेश सिंह के यहाँ खाना बनाने पहुँची। हरीश निगम के यहाँ का काम निबटा चुकी थी। सोचा था कि जल्दी ही यहाँ भी खाना बनाकर चल देगी, पर तरह-तरह के व्यंजनों का आर्डर हो गया। वह जल्दी-जल्दी बनाने में लग गयी। घड़ी की सुइयों ने जब नौ बजा दिये तो उसका दिल धड़कने लगा अपने लिए भी और अपने बच्चों के लिए भी। बच्चे अब तक कहीं भूखे न सो गये हों! छोटा वाला बेटा और बेटी दोनों तो सो ही गये होंगे। बच गया होगा तो बड़ा वाला। वह भी निंदा गया होगा और माँ के लौटने का इंतज़ार करते-करते थक गया होगा। रास्ते में कई जगह सड़कों पर बत्तियाँ नहीं थी। उन अँधेरे के शामियानों के नीचे से गुज़रने में डर के मारे उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती थी। उसकी गली में वैसे ही मवालियों की कमी नहीं थी।

टेबुल पर किसी-किसी तरह व्यंजन सजाकर वह भागी। मुख्य सड़क पर तो पूरी रौ से हँसते हुए बिजली के खंभे खड़े थे, पर गली में तिमिर की चाँदनी तनी हुई थी। उस उजाले-अँधेरे से गुज़रकर जब वह अपनी कोठरी के बाहर पहुँची तो देखा सिर्फ़ बड़ा वाला बेटा जाग रहा था। बाक़ी दोनों दो बंद कमल-कलियों की तरह सीढ़ियों पर ही सोये हुए थे। उसने बारी-बारी से तीनों को चूमा-पहले बड़े वाले को, फिर दोनों सोये हुए बच्चों को।

दूसरे दिन सुबह-सुबह ही भाई-भाभी के घर से उनके लड़ाई-झगड़े की आवाज़ सुनायी देने लगी। सुनीता बोल रही थी "आख़िर तुम उसे कुछ कहते क्यों नहीं? रात के दस बजे वह न जाने कहाँ से घर लौटती है। कौन-सा काम करती है कि इतनी रात बीत जाती है? और इत्ता कपड़ा-लत्ता पहनती है तुम्हें दिखायी नहीं देता? कहाँ से पहनती है इतना? तुम्हें कुछ समझ में आता है या नहीं? कुछ कहना ज़रूरी नहीं समझते क्या?"

भाई की आवाज आयी, "क्या उल्टा-सीधा बोलती रहती हो?"

"मैं उल्टा-सीधा बोल रही हूँ? तुम तो बाहर रहते हो, इसीलिए जानते नहीं।"

"अच्छी तरह जानता हूँ। वह शुरू से ही इसी तरह कपड़े पहनती रही है...।"

बीच में ही बात काटकर सुनीता ने कहा, "शरू से ही पहनती रही तो अभी भी पहनेगी? मैं कहती हूँ कि उसे देख कर लगता है कि प्रेम जी नहीं रहे? न ग़म, न शर्म।"

"चुप रहो...!" डाँट बैठा था दीपा का भाई पत्नी को।

सुनीता फिर बोलने लगी, "अरे, तुम्हारी बुद्धि घास चरने गयी है। जाकर पूछो लोग-बाग क्या कहते हैं उसके बारे में। हमारी बगल में रहकर वह हमारी भद्द करवा रही है। यदि उसे अपनी चाल नहीं सुधारनी है तो वह चली जाये। कहीं और जाकर रहे। मुझसे न देखा जायेगा उसका बेरास्ता रास्ता चलना।… अगर तुम्हें कहना है तो कहो वर्ना मैं ही जाकर कह देती हूँ...।"

यह सब सुनकर दीपा का भाई बौखलाया हुआ उसकी कोठरी में चला गया। "दीपा ..." भाई की ग़ुस्से से भरी आवाज़ सुनकर दीपा सहम गयी। उसके मुँह से आवाज़ न निकली। वह अपराधिनी बनी दीवार से लगकर खड़ी हो गयी।

"दीपा... ये क्या हो रहा है? कहाँ काम करती हो तुम?"

"भैया, मैं हरीश निगम जी और कमलेश जी के यहाँ खाना बनाती हूँ। कल खाना बनाते-बनाते देर हो गयी तो क्या करती? भागी-भागी घर लौटी तो साढ़े नौ बज चुके थे...।"

"अच्छा ठीक है। पर काम के लिए निकलती हो तो थोड़ा ढंग से निकला करो... समझी न? तुम चाहती हो कि तुम्हारे बारे में लोग उल्टी-सीधी बातें करें? हम नहीं चाहते कि तुम्हारे कारण हमारी हँसी हो। समझी न?"

इसके बाद भाई ने ख़ामोश होकर उसे बड़ी-बड़ी आँखों से दो पल तक घूरा। दीपा कुछ नहीं बोल पायी। अपनी ओर से कोई सफ़ाई भी नहीं दे पायी। आँखें डबडबा गयीं तो उसने झुका लीं।

भाई जैसे गरजता हुआ आ धमका था वैसे ही चमकता हुआ चला गया। अगले दिन से दीपा ने दूसरा मकान खोजना शुरू कर दिया था। जिसकी छाया में रहकर वह अपने और अपने बच्चों के लिए थोड़ी सुरक्षा और शांति चाह रही थी, वही स्वयं उसका बसेरा उजाड़ देने को बेचैन हो चला था तो वह क्यों रहे वहाँ? अलग रहने पर भी हर रोज़ उसे और उसके बच्चों को सुनना पड़ रहा था। अब वह दूर चली जायेगी। चाहे कहीं भी जाये।

दीपा को नयी कोठरी जल्दी ही मिल गयी। उसने दो-तीन बक्से सँभाले और कछ गठरियाँ बाँधी। ठेले पर सामान रखवा कर बच्चों को लिये पहुँच गयी नये बसेरे में। यहाँ आने पर ज़िन्दगी बहुत तनाव-भरी हो गयी। अपने आपको बिल्कुल अकेली महसूस करने लगी तो पड़ोसियों से मिलने-जुलने की कोशिश करने लगी। अब उसका सजने-सँवरने का उत्साह न जाने कहाँ चला गया। सुनीता इतना बोल चुकी थी उसके मासूम शौक़ के ख़िलाफ़ कि अब जब भी अच्छी साड़ी निकालने लगती, मन अपराध-बोध से भर जाता। अब जिस साड़ी में बच्चों को नहलाती-धुलाती, उनके लिए खाना बनाती, उन्हें खिलाती, उन्हीं कपड़ों में बच्चों को स्कूल छोड़ने चली जाती और उधर से ही अपने काम पर। उसकी मालकिनें भौंचक थीं कि क्या बात है कि दीपा आजकल इस तरह मुसड़े-तुसड़े कपड़ों में चली आती है काम करने? कमलेश जी की पत्नी ने पूछा, "क्या बात है दीपा? तबीयत तो ठीक है न? अच्छी-भली नहीं दिख रहे हो तुम? बीमार हो क्या?"

"नहीं!" छोटा-सा उत्तर दिया दीपा ने। उसका चेहरा उतरा हुआ था।

फिर एक दिन मिसेज निगम ने टोका, ‘क्यों दीपा? इधर देख रही हूँ कुछ दिनों से बहुत ख़ामोश रहती हो और इसी एक साड़ी में आ रही हो। क्या बात है? पहले तो रोज़ साड़ियाँ बदल-बदल कर आती थी। अनारकली भी पहनती थी जिसमें तुम कितनी अच्छी लगती थी। अचानक क्या हो गया है तुम्हें?"

वह कुछ नहीं बोली।

"तुम्हारी नयी-नयी साड़ियाँ कहाँ गयीं? क्या उन्हें बचाकर रख रही हो?"

"नहीं आंटी, मैं बचाती नहीं। बचाकर क्या करूँगी?"

"तब? क्या हुआ है?"

दीपा ने इसका जवाब नहीं दिया। चुपचाप किचेन में चली गयी।

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