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गद्यकार महादेवी वर्मा और नारी विमर्श

साहित्य जगत में महादेवी वर्मा की मुख्य पहचान छायावादी कवयित्री के रूप में ही है। उन्होंने काव्य जगत को सात काव्य ग्रंथ -नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्य गीत, दीपशिखा, सप्तपर्णा और हिमालय दिए हैं, लेकिन उनकी गद्य रचनाओं की संख्या एक दर्जन से अधिक है- अतीत के चलचित्र (1941), श्रृंखला की कड़ियाँ (1942), स्मृति की रेखाएँ (1943) , पथ के साथी (1956), क्षणदा (1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध (1960), दृष्टिबोध (भूमिकाओं का संग्रह) (1962), संकल्पिता (1969), मेरा परिवार (1971), मेरे प्रिय सम्भाषण (1975), मेरे प्रिय निबन्ध (1986 द्वि सं.), साहित्यकार की आस्था (1986), महादेवीः प्रतिनिधि गद्य रचनाएँ (1983)। इन गद्य रचनाओं पर भी उनका नारी विमर्श भारी पड़ता है। डॉ. सूर्यप्रकाश दीक्षित ‘महादेवीः प्रतिनिधि गद्य रचनाऍं’ में कहते हैं, “नारी-जीवन और समसामयिक जीवन-बोध-विषयक उनका चिन्तन जब काव्यबद्ध नहीं हो सका तो उन्हें गद्य का आश्रय लेना पड़ा।” महादेवी के रेखाचित्र- बिंदा, सबिया, बिट्टो, अनाहूत की माँ, भक्तिन, मुन्नू की माई, बिबिया/बरेठिन, गुंगिया- नारी जीवन की धारावाहिक त्रासदियों का आग के अक्षरों में आँसू भरकर लिखा गया सिलसिला हैं। ‘पथ के साथी’ में उनका सुभद्रा कुमारी चौहान पर संस्मरण भी मिलता है। महादेवी ने बालिका से लेकर वृद्धा तक, निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक, विधवा से लेकर सधवा तक, अशिक्षिता से लेकर साहित्यकर्मी तक, घरेलू स्त्री से लेकर स्वतंत्रता सेनानी तक- सब पर अपनी लेखनी चलाई है। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में उनके नारी विषयक सामान्य निबन्ध हैं। नारी विमर्श, नारी मुक्ति, नारी सशक्तिकरण, नारीवाद की बात अकसर ग्रिम बहनों, जॉन स्टुअर्ड मिल, सीमोन द बउआ, जर्मेन ग्रियर से जोड़ी जाती है। सच्चाई यह है कि जिस समय सीमोन द बउआ फ्रांस में अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ लिख रही थी, उन्हीं दिनों महादेवी वर्मा भारत में ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को आकार दे रही थी।

महादेवी के पाँच आलेख सीधे नारी विमर्श से जुड़ते है- युद्ध और नारी, नारीत्व का अभिशाप, आधुनिक नारी, स्त्री के अर्थ स्वातन्त्र्य का प्रश्न, नए दशक में महिलाओं का स्थान। प्रथम चार ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ से और पाँचवाँ ‘संभाषण’ से है।

‘युद्ध और नारी’ में महादेवी वैश्विक फलक पर बात शुरू करती है। युद्ध के मूल में पुरुष में छिपा हिंसक जन्तु एवं बबर्रता मानती हुई; तथ्यों को मनोवैज्ञानिक आधार देती कहती हैं, “इन पवित्र गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है, पुरुष की शक्ति पर नहीं।... अपनी सहज बुद्धि के कारण ही स्त्री ने पुरुष के साथ अपना संघर्ष नहीं होने दिया। यदि होने दिया होता तो आज मानव जाति की कहानी ही दूसरी होती।” वे मानती हैं कि स्त्री शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ही युद्ध के उपयुक्त नहीं है। युद्ध उसके विकास में बाधक रहा है। युद्ध ने ही द्रोपदी को न महिमामय जननी बनने दिया, न गौरवान्वित पत्नी। पुरुष और स्त्री के स्वभाव में कुछ मूलभूत अंतर हैं। स्त्री के स्वभाव और गृह के आकर्षण ने पुरुष को युद्ध से कुछ विरत भले ही किया हो, लेकिन युद्ध, कर्म और संघर्ष उसकी मूल वृति है, उसके लिए गर्व के कारण है। इसी नशे में उसने स्त्री को दुर्बल घोषित कर दिया और इस चुनौती को स्वीकार करते स्त्री भी पुरुष का ही दूसरा रूप बनने का संकल्प कर लिया। यानि अनजाने में पुरुष ने स्त्रियों की एक ऐसी सेना तैयार कर ली है, जो पाश्विक पुरुषीय बल में विश्वास रखती है, जो समय आने पर उसके हाथों से अस्त्र लेकर संहारक की भूमिका भी अदा कर सकती हैं। पुरुष मनोविज्ञान पर आगे लिखती हैं, “यदि स्त्री पग-पग पर अपने आँसुओं से उसका मार्ग गीला करती चले, तो यह पुरुष के साहस का उपहास होगा, यदि वह पल-पल उसे कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य सुझाया करे तो यह उसकी बुद्धि को चुनौती होगी, और यदि वह उसका साहचर्य छोड़ दे तो यह उसके जीवन की रुक्षता के लिए दुर्वह होगा।” इतना स्पष्ट है कि स्त्री और गृह पुरुष के जीवन की आवश्यकताओं में से एक है, जबकि पुरुष और गृह स्त्री का जीवन हैं। 

‘नारीत्व और अभिशाप’ में महादेवी दो पौराणिक प्रसंग देती हैं। न माता का वध करते हुए परशुराम का हृदय पिघला और न सीता को धरती में समाहित होते देख राम का हृदय विदीर्ण हुआ। पुरुष युगों से नारी के हर त्याग को अपना अधिकार और उसके हर बलिदान को उसकी दुर्बलता मानता आया है। स्त्री की हतसंज्ञता के पार्श्व में उसका सदियों से चला आ रहा शोषण ही है। “हम जब बहुत समय तक अपने किसी अंग से उसकी शक्ति से अधिक कार्य लेते रहते हैं तो वह शिथिल और संज्ञाहीन सा हुए बिना नहीं रहता। नारी जाति भी समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर अपनी सहनशक्ति से अधिक त्याग स्वीकार करके संज्ञाहीन सी हो गई है।” घर और समाज दोनों ही स्थलों पर उसकी हालात करुण है। न उसे मायके में स्नेह और अधिकार मिलते है न ससुराल में। स्त्री की गुणहीन या सर्वगुण सम्पन्न होना दोनों ही स्थितियाँ पुरुष को स्वीकार्य नहीं हैं। यदि वह अति आकर्षक है तो पुरुष उसे रंगीन खिलौने की तरह समझेगा और यदि कुरूप है तो उपेक्षा की वस्तु बन जाएगी- दोनों ही स्थितियाँ अपमानजनक हैं। स्त्री अगर सीधी सादी है तो उसे इस दोष के कारण और यदि पति से इक्कीस है तो दोषों के अभाव के कारण पति की अप्रसन्नता झेलनी ही पड़ती है। उसकी किसी क्यों का उत्तर देने के लिए न पति बाध्य है, न समाज बाध्य है, न धर्म बाध्य है। चाहे वह स्वर्ण पिंजर की बंदिनी हो, चाहे लौह पिंजर की, परन्तु बन्दिनी तो वह है ही और ऐसी कि जिसके निकट स्वतन्त्रता का विचार तक पाप माना जाता है। 

स्त्री चाहे बाल विधवा हो, समाज उसे तापसी के रूप में ही देखना चाहता है। वैधव्य उसके जीवन में घोर अपराध के रूप में, दंड के रूप में आता है। अगर नारी का बलात् अपहरण ही क्यों न हो, उसकी खोज के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया जाता । युगों से दासत्व भोग रही स्त्री आत्मरक्षा का साहस भी खो चुकी है। स्थिति यह है कि हम पशु-पक्षियों को, पाषाणों को, अपनी सहानुभूति बाँट सकते हैं। नारी को निर्मम आदेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पाते। देवता की भूख हम समझते हैं, मानवी की नहीं। अंत में महादेवी लिखती हैं, “आवश्यकता है एक ऐसे देशव्यापी आंदोलन की जो सबको सजग कर दे...मनुष्य जाति के कलंक के समान लगने वाले इन अत्याचारों का तुरत अंत हो जाए, अन्यथा नारी के िए नारीत्व अभिशाप तो है ही।”

तृतीय निबन्ध ‘आधुनिक नारी’ दो भागों में विभक्त है। आधुनिक नारी ने बड़े यत्न और परिश्रम से उस भावुकता को नष्ट करने का संकल्प किया है, जिसका आश्रय लेकर पुरुष उसे रमणी समझता आया है। उस गृह बंधन को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया है, जिसकी सीमा ने उसे भार्या बनाया है। उस कोमलता को कुचलने का यत्न किया है, जिसके कारण पुरुष को रक्षक बनना पड़ता था। निस्संदेह स्त्री ने अर्थ-स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, किन्तु उसका प्रसाधन मोह स्पष्ट करता है कि परम्परागत रमणीत्व से वह मुक्ति चाहती ही नहीं है। भारतीय परम्परागत संस्कार, विषम परिस्थियाँ, और प्रतिद्वन्द्विता के भावों ने उसका मार्ग रोक रखा है।

महादेवी स्त्रियों को तीन भागों में बाँटती है। 1-राजनीतिक आन्दोलन में पुरुषों का साथ देने वाली स्त्रियाँ। 2-शिक्षा को आजीविका बनाने वाली स्त्रियाँ। 3-शिक्षा और आधुनिकता से युक्त सम्पन्न वर्ग की स्त्रियाँ। वे मानती हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाली स्त्रियों ने आधुनिकता को जागृति के रूप में देखा। कंकण और कृपाण में, गृहस्थ और राष्ट्रीय संघर्ष में समन्वय स्थापित किया, किन्तु स्वातंत्र्योत्तर काल में उसे संतुलित जीवन न मिल सका।

महादेवी वर्मा ने स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य के प्रश्न पर भी विचार किया है। आर्थिक स्तर पर भारतीय स्त्री नितान्त रंक एवं परतंत्र रही है। उसे कभी भी सहयोगिनी नहीं माना गया। किसी भी स्मृतिकार या शास्त्रकार ने उसकी आर्थिक समस्या पर विचार नहीं किया। इस देश में नारी को देवत्व देकर उसे पूजा की वस्तु बना दिया गया। उसके मौन जड़ देवत्व में ही पुरुष अपना कल्याण समझने लगा। उसके चारों ओर संस्कारों का क्रूर पहरा बिठा दिया गया। उसकी निश्चेष्टता को भी उसके सहयोग और संतोष का सूचक माना गया। लेकिन उसे मानवी मानते हुए मानवाधिकारों की बात सर्वप्रथम 19 वीं शताब्दी के समाज सुधारकों ने ही की है। “संसार ने स्त्री के संबंध में अर्थ का ऐसा विषम विभाजन किया है कि साधारण श्रमजीवी वर्ग से लेकर सम्पन्न वर्ग की स्त्रियों तक की दयनीय स्थिति ही कही जाने योग्य है। वह केवल उत्तराधिकार से ही वंचित नहीं है, वरन् अर्थ के क्षेत्र में एक प्रकार की विवशता के बंधन में बंधी हुई है। कहीं पुरुष ने न्याय का सहारा लेकर और कहीं अपने स्वामित्व की शक्ति से लाभ उठाकर उसे इतना अधिक परावलम्बी बना दिया है कि वह उसकी सहायता के बिना संसार पथ पर एक भी पग आगे नहीं बढ़ सकती।” अर्थ संकट ही स्त्री को उस अवस्था तक ले जाता है, जिसे समाज पतिता कहता है।

किसी भी संस्कृति, समाज और देश के विकास का मापदण्ड उसमें नारी की स्थिति ही मानी जाती है। भूमण्डलीकरण के इस युग में महिलाओं को संस्कृति के घेरे में बंद करके आधुनिक युग की चुनौतियाँ का सामना नहीं किया जा सकता। वैदिक काल में स्त्री के शिक्षित एवं स्वयंवरा होने के प्रमाण मिलते हैं। जब हम शिव को अर्ध नारीश्वर कहते हैं तो भारतीय समाज में नारी के भौतिक एवं आध्यात्मिक उच्चासन का पता चलता है, किन्तु कालान्तर में जानें कैसे उसे सातवें आसमान से जमीन पर पटक दिया गया। “सीता पत्नी होने के कारण कष्ट सहने को बाध्य थी और राधा पत्नी न होने के कारण। तंत्र साधक अलौकिक शक्ति प्राप्त करने के लिए स्त्री को साधन बनाने की साधना करते थे और निर्गुणवादी संत उसे माया कहकर छोड़ने की साधना करते थे। कहीं वह देवताओं के मनोरंजन के लिए देवदासी बनी और कहीं पुरुष के मनोरंजन की सामग्री।” फिर भी भारतीय नारी का संघर्ष वर्गगत अधिकसरों के लिए न होकर सम्पूर्ण देश की स्वतंत्रता के लिए था। प्रथम मुक्ति संग्राम, आजाद हिन्द फौज की नारी सैनिकाएँ, द्वितीय स्वतंत्रता आंदोलन की नेत्रियाँ एवं सशस्त्र क्रांति में योगदान देने वाली स्त्रियों का योगदान उल्लेखनीय है। 1916 में एनीबेसेण्ट तथा 1925 में सरोजिनी नायडू पुरुष प्रधान कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित हुई। विजयलक्ष्मी पंडित प्रथम मंत्री, सुचेता कृपलानी प्रथम मुख्यमंत्री, सरोजिनी नायडू प्रथम राज्यपाल एवं इंदिरा गांधी प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनी। ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका में नारी को लम्बे संघर्ष के बाद क्रमशः 1918,1920 एवं 1944 में मताधिकार मिले जबकि भारतीय संविधान ने भारत के गणराज्य बनते ही स्त्री को यह अधिकार दे दिया। किन्तु वैधानिक और सामाजिक स्थिति में विरोध होने के कारण अधिकार अलंकार मात्र बनकर रह गए हैं क्योंकि इस देश में लिखित संविधान और अलिखित समाज संहिता दो विपरीत ध्रुव हैं। 

अर्थतंत्र में नारी के हस्तक्षेप के कारण कर्मक्षेत्र में खिंची रेखाएँ भी मिटने लगी है।

समाज का विकास और ह्रास मध्यवर्गीय नारी पर ही निर्भर करता है। मध्यवर्ग की यह नारी आज शिक्षिका, डाक्टर, वकील, राजनेता, पर्वतारोही, तैराक, खिलाड़ी, इंजीनियर, सैनिक, सेना अधिकारी, एयर होस्टेस, फैशन माडल बन रही है। युगों से दलित पीड़त रहने के कारण भले ही पुरुष सत्ताक उसे घर -बाहर सर्वत्र संदेह की दृष्टि से देख रहा हो, लेकिन उसने नए क्षितिज मापने शुरू कर दिए हैं। 

इस नारी विमर्श में महादेवी वर्मा ने अतीत, प्रत्यक्ष वर्तमान एवं अनागत भविष्य-तीनों पर दृष्टिपात किया है।

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