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कश्मीर की वादियों में

जाना तो था कश्मीर, पर कब? अख़बार, दूरदर्शन, नेट- हर चौथे दिन समाचार  दहला जाते थे। इस बार मन बना ही लिया। पाँच रात और छह दिन का पैकेज था। तीन रात श्रीनगर और दो पहलगाम। उत्तर भारत की झेलम नदी की घाटी पर स्थित कश्मीर धरती का स्वर्ग कहा जाता है। यहाँ बारह महीने, 24 x 7 ही सौंदर्य की अद्भुत छटा बिखरी रहती है। गर्मियों में हर ओर हरियाली रहती है, तो सर्दियों में चारों ओर बिछी बर्फ़ पर्यटकों को आकर्षित करती है, बर्फ़ से खेलने के लिए आमंत्रित करती है। 

कुछ देर पहले ही अमृतसर से कश्मीर के लिए सीधी हवाई यात्रा शुरू हुई है,  अन्यथा जम्मू जाकर फ़्लाइट पकड़नी पड़ती थी। अब काफ़ी सुगम हो गया है। मात्र एक घंटे की यात्रा। बाद दोपहर दो बजे जहाज़ ने उड़ान भरी और तीन बजे के आसपास श्रीनगर हवाई अड्डे पर लैंड कर गया। निकलते-निकलते चार बज गए। ट्रैवल एजेंसी वालों की गाड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। उत्तर श्रीनगर के केंट एरिया का होटल लेमन ट्री हमारा प्रथम पड़ाव था। हवाई अड्डे से होटल तक का रास्ता बड़ा साफ़-सुथरा था। सड़कों पर चहल-पहल थी। हर ओर बड़ी-बड़ी इमारतें दिख रही थीं। 

वहाँ पहुँचते ही पता चला कि जियो का प्री-पेड टाक टाइम और नेट यहाँ नहीं चलता। होटल के वाई-फ़ाई, और अपने मोबाइल के एयरटेल से काम चला रहे थे कि दक्षिण श्रीनगर में हुई किसी मुठभेड़ के कारण अगले दिन एयरटेल का नेट और होटलों के वाई-फ़ाई सब बंद हो गए। पर्यटन यहाँ की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है। होटल के लोग हों, ड्राईवर या सुरक्षाकर्मी- सब की बातचीत और हाव-भाव से स्पष्ट था कि पर्यटन उनके लिए विशेष है और सरकार की सारी योजनाओं के अन्तर्गत पर्यटकों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता है। 

आधे घंटे में तरोताज़ा होकर हम डल लेक के लिए निकल दिये। 18 किलोमीटर में फैली यह विशाल झील तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी हुई है। ड्राईवर ने शिकारे वाले से बात की और हम कोई डेढ़ घंटे के लिए झील की मदमस्त सैर के लिए शिकारे में बैठ गए। ठंडी-ठंडी मज़ेदार हवा चल रही थी। एक ओर ढेर सारी हाउस बोट ऐसे खड़ी थीं, मानो वह हाउस बोट की कोई कॉलोनी हो। बार-बार हमारे शिकारे से कोई न कोई नौका आकर टकरा जाती। मूलत: यह मानो डल झील का नौका बाज़ार था। किसी में चाय, कॉफ़ी, कोको बेची जा रही थी, किसी में कश्मीरी शालें, फिरन आदि और किसी में बैठा फोटोग्राफर फोटो के लिए अनुरोध कर रहा था। अनेक स्थलों पर झील में उगी वनस्पतियाँ और हल्के पीले रंग के वाटर लिली के फूल उसके सौंदर्य को चार चाँद लगा रहे थे। झील के अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग नाम भी शिकारेवाला बताता जा रहा था। झील के बीचों-बीच दूर नेहरू गार्डेन दिख रहा था। शिकारे वाला हमें वही ले गया। बड़े-बड़े रंग-बिरंगे गुलाबों और दूसरे फूलों से महक रहा यह ख़ूबसूरत उपवन इतना सुंदर था कि कोई फोटो लिए बिना रह ही न सके। बीस एक मिनट के बाद हम फिर शिकारे पर थे। आश्चर्य कि झील के अंदर, पानी के ऊपर/ बीच अनगिनत दुकानें थीं- कपड़ा, ड्राइ फ्रूट, केसर, खाने-पीने की चीज़ें और एक पूरा मीना बाज़ार। यह नौकायन स्मृतियों में गहरे पैठने वाली चीज़ रही। शंकराचार्य मंदिर डल झील से, खुले बाज़ारों से, दूर-नज़दीक से, हर ओर से दिखाई दे रहा था।     

अगले दिन हमें 57 किलोमीटर का सफ़र तय कर गुलमर्ग आना था। ब्रेकफ़ास्ट और डिनर हमारे पैकेज में ही समाहित था। लेमन ट्री होटल में बफ़े नाश्ता था। दो तरह के जूस, फल, चाय, कॉफ़ी, दूध, कॉर्न फ़्लेक, परोंठी, डोसा, पूरी-चने वग़ैरह। जिस को जो पसंद हो ले ले। डाइनिंग हाल भरा-भरा था। कोई पौने दस बजे हम गुलमर्ग के लिए निकल दिये। सड़कों पर भीड़ थी। ट्रैफ़िक की भी और पैदल की भी। ज़्यादातर स्त्रियाँ बुर्के में थीं। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों की बगिया। समुद्र तल से 1730 मीटर ऊँचाई पर स्थित गुलमर्ग बारामूला ज़िले में है। कहते हैं कि 1927 में अंग्रेज़ों द्वारा इस की स्थापना की गई थी। इसका वास्तविक नाम गौरीमर्ग था। बर्फ़ पर चलने के लिए गम बूट और लंबे कोट किराये पर दिलवाने के बाद ड्राईवर ने गुलमर्ग के टैक्सी स्टैंड पर हमें उतार दिया। गाइड हमारे साथ था और हम गंतव्य के लिए चल दिये। मौसम काफ़ी ठंडा था और लगातार बारिश हो रही थी- कभी मूसलाधार और कभी मंद। यहाँ से गंडोला पर टिकिट लेकर पहाड़ी की ऊँचाई तक जाना था, लेकिन आधा घंटा चलने के बाद पता चला कि ख़राब मौसम के कारण गंडोला तो बंद हो चुका है। गंडोला विश्व की सबसे तीव्रगति केबल कारों में से एक है। यह सैलानियों को पीरपंजाल पर्वत शृंखला की सबसे ऊँची चोटी जफ़ारत तक ले जाता है। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। क्या आज का सफ़र बेकार गया? जेकेट-कोट के बावजूद बिलकुल भीग चुके थे। एक छोटा सा शेड दिखाई दिया और गरम चाय से शरीर और दिमाग़ कुछ चुस्त हुये। गाइड से मशवरा किया और फिर एक जीपनुमा गाड़ी में कोई तेरह मील का चक्कर लगाया। गोल्फ़ कोर्स देखा। 1904 में इसकी स्थापना की गई थी। कहते हैं कि यह विश्व का सबसे बड़ा गोल्फ़ कोर्स है। गाड़ी से ही स्की रिज़ॉर्ट देखा। बर्फ़बारी होने पर लोग यहाँ स्की के लिए आते हैं।  

तीसरे दिन हमारा परी महल, चश्माँ शाही, इन्दिरा गांधी ट्यूलिप गार्डेन, निशात बाग, शंकराचार्य मन्दिर, शालीमार बाग आदि देखने का कार्यक्रम था। श्रीनगर के मौसम का  कोई भरोसा ही नहीं। कभी धूप, कभी छमाछम वर्षा। सोचा रास्ते में छाते ख़रीद लेंगे। होटल वालों से पूछा तो उन्होंने लेमन ट्री के इन्सिग्निया के साथ एकदम सफ़ेद और नींबू जैसे रंग के दो खूबसूरत छाते पकड़ा दिये। परी महल, चश्मा शाही, निशात बाग श्री नगर के प्रमुख मुग़ल बाग़ हैं। इनके मनमोहक शुद्ध जल के फव्वारे, सुंदर क्यारियाँ, हरे-भरे मैदान, सँकरे गलियारे, पत्थरों की पुरानी सीढ़ियाँ, प्राकृतिक दृश्य पर्यटकों को बाँध-बाँध लेते हैं। जगह-जगह कश्मीरी वेषभूषा में फोटोग्राफर फोटो के लिए अनुरोध कर रहे थे। हमने भी निशात बाग़ में चिनार के पेड़ों के साथ फोटो उतरवाई। 

कहते हैं कि 1633 में नूरजहां के भाई आसिफ खान ने डल झील के किनारे निशात बाग़ बनवाया था। नेहरू पार्क में तो फोटो हो गई थी, लेकिन शिकारे में कोई फोटो नहीं थी। हालाँकि उस समय शिकारे बंद थे, फिर भी फोटोग्राफर ने शिकारे में बिठाकर फोटो ले हमारी यह आकांक्षा भी पूरी कर दी।            

अगला दिन पहलगाम का था। श्री नगर से पहलगाम की दूरी कोई 96 किलोमीटर है। प्रात: पाँच बजे चलकर हम कोई सवा-डेढ़ घंटे में पहलगाम के होटल वुड स्टॉक पहुँचे। लिद्दर नदी के किनारे बना यह क्लासिकल और अतिविशाल होटल है। सौ के आसपास कमरे, बीच का रोज़ गार्डेन, सीढ़ियाँ उतर कर बड़े-बड़े बाग और लिद्दर नदी की कल-कल की आवाज़- सब बहुत मनोहर था। 

सुबह ग्यारह के आसपास हम निकले। बेताब वेली, अरू वेली, चंदनवाड़ी, डियर गार्डन जैसे अनेक स्थल थे। गाइड, जूते-कोट किराये पर देने वाले, घोड़े वाले, फोटो वाले, शाल वगैरह बेचने वाले– हर जगह सब ऐसे घेर रहे थे, जैसे शिकारी शिकार को घेरता है। बढ़-चढ़ कर दाम बता रहे थे। शेषनाग नदी अपने स्वच्छ और शीतल जल के साथ अनेक स्थलों पर दिखाई दी। इतनी पास से बर्फ के पहाड़ देखना और उन पर चढ़ना रोमांचित कर रहा था। घुड़सवारी तो वहाँ के घोड़ेवालों ने करवाकर ही छोड़ी। वापसी पर डियर गार्डन भी हो लिए। हिरण, जंगली बिल्लियाँ, स्नो लेपार्ड, शेर आदि देखे। सारे एडवेंचर के बावजूद आज थक कर चूर-चूर हो गए थे।  

चीड़, चिनार, देवदार, फर, सेब के वृक्षों से सुसज्जित पहाड़ उस कुशल चित्रकार की खूबसूरत कला के नज़ारे प्रस्तुत कर रहे थे। कौए हमारे यहाँ से कहीं अधिक काले थे। कुत्ते तो कहीं दिखे ही नहीं। हाँ भेड़ों के बड़े-बड़े झुण्ड अवश्य बार-बार रास्ता रोक लेते थे।

कश्मीर की वादियों, श्रीनगर, गुलमर्ग, पहलगाम के रमणीय स्थलों ने हमारे सिने जगत के कर्णधारों को विशेष रूप से आकर्षित किया है और स्थानीय लोगों का क़द भी ऊँचा उठाया है। जगह-जगह भेड़ों के झुंड देख ‘बजरंगी भाई साहब’ याद आ रहे थे। ‘बेताब’ की शूटिंग ने तो वेली का नाम ही ‘बेताब वेली’ रख दिया। ‘कश्मीर की कली’, ‘ मिशन कश्मीर’, ‘नूरी’, ‘ हिमालय की गोद में’, ‘ जब जब फूल खिले’, ‘हैदर’, ‘फितूर’ कश्मीर की शूटिंग लिए हैं। दुखद तो यह है कि जिस कश्मीर में कभी 19 सिनेमाघर होते थे, वहाँ आज टी.वी. पर अथवा  पायरेटिड सी.डी. देखकर ही सब संतोष कर लेते हैं।    

सारे प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद पहाड़ी ग़रीबी हृदय विदारक थी। दूर के लोग तो फिरदोस की पंक्तियाँ दोहराते कश्मीर को जन्नत मान लेते हैं- ‘गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त।‘ ( धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है), लेकिन स्थानीय निवासी अपने जीवन संघर्ष, दारिद्र्य, दहशत के कारण ऐसा नहीं मानता। ज़रा कह कर देखिये- ‘आप तो जन्नत में बैठे हो’, झट से जवाब आएगा- आप भी यहीं रह जाओ- मानों किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।   

बहुत पहले कश्मीर की सुलगती घाटी में फैले आतंकवाद के छह वर्षों पर आधारित संजना कौल का उपन्यास ‘पाषाण युग’ पढ़ा था। आतंकवाद- जिसके मूल में न धार्मिक आस्थाएँ हैं, न दार्शनिक मान्यताएँ, न सामाजिक मूल्य, न वैयक्तिक विवेक, न वैज्ञानिक चेतना। बातचीत से स्पष्ट हो रहा था कि यहाँ भी स्थानीय लोग अपने लिए, परिवार के लिए युवा हो रहे बच्चों के लिए एक असुरक्षा महसूस कर रहे हैं, कहीं न कहीं संत्रस्त हैं, भयभीत हैं। इस ट्रिप में कोई विदेशी सैलानी नहीं दिखा। न अंग्रेज़, न नीग्रो, न चीनी-जापानी- कोरियन। 

अगले दिन दोपहर पौने तीन की श्रीनगर से फ्लाइट थी। प्रश्न यह था कि सुरक्षा के हिसाब से चला कब जाये। ड्राइवर ने बताया कि होटल मैनेजर पुलिस स्टेशन से जानकारी लेकर यात्रा का सुरक्षित समय बता सकता है और इन्हीं हिदायतों के अनुरूप हमने पहलगाम से श्रीनगर हवाई अड्डे तक पहुँचने का समय प्रात: साढ़े चार निर्धारित किया और छह बजे से पहले श्रीनगर पहुँच गए।  ट्रैवल ऐजन्सी ने बात करके हवाई अड्डे के पास ही छह घंटे के लिए एक होटल बुक करवा दिया- सिक्स सीज़न। यहाँ  आराम किया, अंदर ही थोड़ा-बहुत घूमे, नाश्ता किया और फिर बारह बजे हवाई अड्डे के लिए निकाल पड़े। अमृतसर आकर जैसे ही हवाई अड्डे से बाहर निकले मई की तेज़ धूप और और गरम लू हमारे इंतज़ार में मिली।    
    

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