घड़ी
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता आशा बर्मन1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
घड़ी घड़ी, हर घड़ी,
वे देखा करते हैं घड़ी,
न जाने हर समय
समय जानने की ज़रूरत
उन्हें क्यों है पड़ी?
अरे, समय का क्या,
समय तो बीतता रहता है प्रतिपल
आज का दिन बीतेगा,
तभी न आएगा
एक नया सुन्दर सा कल।
पूछते ही रहते हैं सदा,
घड़ी में कितना है बजा?
लगता है, यदि मेरा बताया गया समय
उनके अनुमानित समय से भिन्न हुआ तो
मुझे दे ही डालेंगे कोई सज़ा।
अरे बाबा, जो बजता है बजने दो,
जीवन को अपने समयानुसार ढलने दो।
समय को लेकर इतना शोर,
न जाने क्यों मचाते हैं?
आख़िर किसलिए हर पल
ये समय बचते जाते हैं?
हम अवकाश प्राप्त प्राणी हैं,
करो काम आराम से और
चिंतामुक्त होकर,
जियो जीवन शान से।
समय पूछकर समय मत गँवाओ,
कुछ अपनी कहो,
कहो कुछ मेरी सुनो
अब तो ज़रा मुस्काओ।
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