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बापू : एक उद्‍गार

हे गत शताब्दी के युग पुरुष, बापू!

 

मुझे यह सौभाग्य तो नहीं मिला कि
में तुम्हारे दर्शन कर सकूँ, पर
यह सौभाग्य तो मिला ही कि
में उसी देश में, उसी युग में जन्मी
जहाँ तुम्हारा जन्म हुआ था।

 

देखने का सौभाग्य तो नहीं, पर
सुनने का सौभाग्य तो मिला ही।
कई सभाओं में तुम्हारी प्रशस्तियाँ सुनी,
कई पत्रिकाओं व ग्रन्थों में
तुम्हारी गाथायें व संस्मरण पढ़े
और हर बार पहले से कुछ अधिक
नतमस्तक हो गयी।

 

इतने वर्षों के पश्चात मन में
बारबार आती है एक ही बात,
कि मानव जाति ने जितना प्रयास
तुम्हारे गुणगान में लगाया है,
उतना शतांश भी प्रयास लगा, यदि
तुम्हारे किसी एक गुण, त्याग,
सत्य, अहिंसा को अपने
जीवन में उतार पाते,
तो न केवल यह एक
सच्ची श्रद्धांजलि होती
वरन्‌ इस विश्व का रूप
कुछ दूसरा ही होता,
विश्व के लोग कुछ भिन्न होते,
बस, मुझे और कुछ नहीं कहना है।
इसके पश्चात कहने सुनने को
क्या शेष रह जाता है?

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