रश्मिरथी के बाद
संस्मरण | स्मृति लेख आशा बर्मन15 Oct 2019
'रश्मिरथी' निस्संदेह ही महाकवि दिनकर की एक कालजयी रचना है। अक्टूबर १९१२ को हमारी हिंदी राइटर्स गिल्ड ने 'रश्मिरथी' के तीसरे सर्ग के एक अंश का सफल मंचन किया। यह एक अत्यंत प्रशंसनीय प्रयास था जिसकी मुक्तकंठ से सराहना की गयी। इस नाटक की नाट्य संरचना तथा निर्देशन 'हिंदी राइटर्स गिल्ड' की निदेशिका डॉक्टर श्रीमती शैलजा सक्सेना ने किया। सौभाग्यवश मुझे भी इस नाटक में भाग लेने का अवसर मिला। 'रश्मिरथी' में माता कुंती के चरित्र का अभिनय मैंने किया था। नाटक के मंचन के उपरान्त मैंने अपने साथ नाटक में भाग लेनेवाले अन्य कलाकारों को एक पत्र लिखा था जो प्रस्तुत है। पत्र शैली में मैंने उस समय के अनुभवों पर आधारित एक कविता लिखने का प्रयत्न किया था जो प्रस्तुत है।
रश्मिरथी के सभी कलाकारों को मेरा नमस्कार। प्रसन्नता का विषय है कि नाटक का मंचन सफल रहा।
सभी के सहयोग से यह संभव हो सका। इमेल के द्वारा सभी ने अपने विचार व्यक्त किये, अब मेरी बारी है। सभी लोगों के साथ काम करके बहुत अच्छा लगा। अभी तक मैं रश्मिरथी के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई हूँ। मैं अपने कर्ण को एक सन्देश देना चाहती हूँ। आशा है शीघ्र ही हम सब मिलेंगे।
कुंती का सन्देश
रे कर्ण! बेध मत मुझे व्यंग्य के शर से,
घायल है यह उर भी पुत्रविरह से।
ध्यानसहित सुन वत्स, जो माँ कहती है,
अन्तर्द्वन्दों को वह भी तो सहती है।
माना कि तू है वीर, महादानी है,
पर व्यवहारिकता में, कुछ अज्ञानी है।
तू सरलहृदय, निष्कपट, धर्मनिरत है,
पर, दूजों के मन छिपा कहीं कपट है।
निष्कपट जनों को ऐसे ही जन छलते,
उनके माध्यम से, निज स्वार्थपूर्ति हैं करते।
जन्मजात कवच-कुंडल जो पाए,
अपनी नादानी से ही उन्हें गँवाए।
परशुराम से शस्त्रज्ञान जो पाया,
कठिन समय पर उसको भी बिसराया।
यह सच है कि तू असमय ही आया था
अतएव न्याय समुचित नहीं पाया था।
तू समझ मेरा तात्पर्य, कष्ट न पाना,
आना ही हो तो, कलियुग में तू आना।
अब भारत में हैं जो बसते हरिजन,
प्रजातंत्र को है उनसे अपनापन।
शिक्षण हेतु न कोई द्रोण उन्हें लौटाता,
न ही कोई एकलव्य, अँगूठा कटवाता।
सूतपुत्र कह नहीं करे, तेरा कोई अपमान,
प्रजातंत्र से होगा सुरक्षित, अब तेरा सम्मान।
मेरी है अभिलाषा यह कि कलियुग में तू आये
और मुझे माताश्री कहकर अपने कंठ लगाए।
- आशा बर्मन – माता कुंती
कर्ण का उत्तर
रश्मिरथी के सभी कलाकारों को मेरा नमस्कार। इस अद्भुत कविता के लिए आशा जी को बधाई!!! सचमुच इतने महानुभावों के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विक्रांत कुटीर (विजय विक्रांत जी का घर) तो हमारी रंगशाला हो गयी है, जैसे गुरुदेव टैगोर का शान्तिनिकेतन!!!
शैलजा जी की अनुपस्थिति सचमुच खली पर जैसा आशा जी ने कहा, उनका निर्देशन हमारे साथ था, सफल तो हमने होना ही था! कांता जी के हाथ की चाय और नाश्ता, पूनम जी के हाथ के व्यंजन और आशा जी के हाथ के खूब भालो रोशोगुल्ले . . . क्या कहने!!!
मैं भी कर्ण के चरित्र से अभी निकल नहीं पाया हूँ. . . थोड़ा समय लगेगा!!! हम जल्दी मिलेंगे, बस शैलजा जी के आने का इंतज़ार है . . . वो और उनका परिवार हमेशा हमारी प्रार्थनाओं में सम्मलित है . . . ईश्वर उनके मातापिता को दीर्घायु प्रदान करे. . .
कर्ण का सन्देश
ओ माता कुंती, आप से है बस एक विनती,
बेधा नहीं कभी किसी को शब्दों के शर से
जीवन भर ग्रसित रहा, शापों के डर से!!
अन्तर्द्वन्दों में ही कटा मेरा जीवन,
सही गलत की नहीं कर पाया पहचान!!
पाप का दिया साथ,
याज्ञसेनी द्रोपदी का किया घोर अपमान!!
जगत कहता कर्ण वीर है, महादानी है,
सही पहचाना माता,
व्यवहारिकता में बहुत अज्ञानी है।
पिता से जो कवच-कुंडल जो पाए,
अपनी नादानी से नहीं,
दूसरों के छल से थे गँवाए।
माता तुम्हारा तात्पर्य समझ तो आया,
कहती हो कलियुग में तू आना।
भारत का प्रजातंत्र बस कहने को है,
यह तूने न जाना !!
कहने भर हो है राम राज्य,
पर असल में है रोम राज्य!!
क्या गारंटी है कि मेरा जन्म
हरिजन परिवार में ही हो?
इस बार ब्राह्मण हुआ तो?
आरक्षण रूपी द्रोण
फिर मुझे लूट जायेगा
पंडित या मनुवादी कह कर,
शायद फिर करे कोई मेरा अपमान,
प्रजातंत्र में ही होता है,
नोट के बदले वोट का आदान प्रदान !
मेरी भी सुन ले अभिलाषा, कि
जन्म लूँ इस बार कनाडा में,
जात-पाँत का बिना ठप्पा लगाये,
कैनेडियन कहलाऊँ
और आपको माताश्री कहकर हरषाऊँ।
Vidya Bhushan Dhar- कर्ण
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