मेरे बाबूजी (आशा बर्मन)
संस्मरण | व्यक्ति चित्र आशा बर्मन15 Apr 2019
आदर, प्यार, मनुहार, स्नेह, ममता, शिक्षा, सुरक्षा इत्यादि कितने ही मधुर मिश्रित भावों के साकार रूप का नाम है – बाबूजी। जिन बचपन की स्मृतियों में खो कर हम समय-समय पर आजीवन आनंदित होते रहते हैं, उसी बचपन की सहजता व निश्चिंतता का मूल कारण है, माता-पिता का वात्सल्य भरा, सुरक्षामय, आशीर्वाद भरा प्यार। ऐसे ही ममतापूर्ण वातावरण में मेरा भी बाल्यकाल व्यतीत हुआ।
बचपन में मैं देखती कि अधिकतर घरों में बच्चे अपनी माँ से तो सहजता से बातचीत कर लेते थे पर पिता से किंचित भयभीत से ही रहते थे। पर हमारे घर ऐसा बिलकुल ही नहीं था।
एक अत्यंत व्यस्त व्यवसायी होने के उपरान्त भी जब बाबूजी घर पर रहते, हम उनके साथ हँसते, खेलते व् गप लड़ाते। रोज़ शाम से ही उनके आने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते। आठ बजते ही हम दोनों बहनें उनकी गाड़ी का हार्न सुनते ही तीसरे माले से पूरी ६६ सीढ़ियाँ पारकर उनके स्वागत को नीचे जा पहुँचतीं। सारे दिन के परिश्रम के पश्चात् बाबूजी को कुछ ही समय आराम मिल पाता। रात के खाने के समय बाबूजी के समक्ष अपने सारे प्रश्नों, सारी समस्याओं को उड़ेलकर उनसे उत्तर की आशा करतीं और हमारी इस नादानी को वे प्रेम से झेल लेते, कभी भी हम पर नहीं खिजलाते।
उन दिनों मुझे पूरा विश्वास था कि हिन्दी, अँग्रेज़ी तथा उर्दू भाषाओं के हर शब्द का अर्थ बाबूजी को पता है। वे ही तो मेरे प्रथम गुरु थे।
मेरे बचपन में मेरे बाबूजी का एक विशेष स्थान रहा है। आज मेरा जो व्यक्तित्व है, उसमें उनका सर्वाधिक योगदान रहा है। साहित्य तथा दर्शन के प्रति मेरी रुझान, पठन-पाठन में मेरी रुचि और सकारात्मक सोच – यह सब उन्हीं की ही देन है।
मेरे बाबूजी एक अत्यंत कुशाग्र बुद्धिसंपन्न विद्यार्थी थे। वे मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे पर आगे पढ़ने की आर्थिक स्थिति के न होने के कारण चाहकर भी आगे पढ़ न सके। उन्हें सहज ही बैंक में नौकरी मिल गयी।
उन्हें और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के प्रति इतना आग्रह था कि दफ़्तर का काम समाप्त करते ही वे नियमित रूप से लाइब्ररी चले जाते और कुछ घंटे वहीं पढ़ाई करते। अपने परिश्रम तथा अध्यवसाय से उन्होंने न केवल हिंदी और अँग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया वरन उर्दू, बांगला और संस्कृत भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान अर्जित किया। उन्हें हिंदी की सैंकड़ों कवितायें, उर्दू की शायरी तथा संस्कृत के अनेक श्लोक कंठस्थ थे, जिनका प्रयोग वे सदा ही उठते–बैठते करते। वे जैसे सदा ही कविता रस में डूबे रहते और और उसकी मिठास वातावरण में घोलते रहते।
तुलसीदासजी की रामचरित मानस उन्हें लगभग पूरी ही याद थी। छुट्टी के दिनों में वे रामायण की कथाएँ अत्यंत रोचक और नाटकीय ढंग से हम बच्चों को सुनाकर हमें आनंदित करते।
बाबूजी जब भी कोई अच्छी कविता पढ़ते तो मुझे सुनाते और समझाते थे।
वे रोज़ सुबह उठकर स्वाध्याय व् ध्यान करते और तत्संबंधी अनुभव भी मुझे बताते। कभी कभी उनकी बातचीत का विषय इतना गंभीर होता कि मैं आपत्ति भी कर बैठती, “बाबूजी समझ में नहीं आ रहा है।”
वे सुनते और मुस्कुराकर कहते, “अभी सुन लो एक दिन समझ में आ जायेगा।” कितना सच था उनका वह कथन।
रोचक बात यह है कि उनकी समस्त दर्शन चर्चा तथा साहित्य चर्चा की एकमात्र श्रोता थी मैं। कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य भी होता है और प्रसन्नता भी कि विदेश में रहकर भी हमें हिंदी राइटर्स गिल्ड जैसी संस्था मिली है जहाँ हम अपनी अभिव्यक्तियों को सबके साथ बाँट सकते हैं। मुझे दुःख है भारत में रहकर भी उन्हें ऐसा मंच कभी भी न मिल सका।
बचपन की एक और मधुर सी स्मृति है – चटपट पाठशाला। छुट्टी के दिनों में बाबूजी सुबह सुबह पास-पड़ोस के बच्चों को एकत्रित कर चटपट पाठशाला का आरम्भ करते। उसमें वे अपनी बनायी हुई कविताएँ व् कहानियाँ बच्चों को बड़े सरस ढंग से सुनाते। उनके पूछने पर उन्हें शब्दों के अर्थ भी बताते। बीच-बीच में चुटकुले और पहेलियाँ भी जुड़ जातीं और साथ ही हँसी के फुहारे भी।
कभी-कभी वे एक प्रयोग भी करते, किसी कहानी की कुछ पंक्तियाँ आरम्भ कर बच्चों से कहते कि बारी-बारी से उसे आगे बढ़ाएँ। इसमें सबको बड़ा आनंद आता। उनकी माँएँ पुकार-पुकार कर थक जातीं पर वे अपने घर जाने का नाम नहीं लेते। ऐसी स्थिति में बाबूजी ही कथासूत्र को अपने हाथ में लेकर उसका समापन करते।
कठोर परिश्रम तथा आत्मविश्वास के बल पर बाबूजी ने बैंक की नौकरी छोड़कर बिजली का व्यवसाय आरम्भ किया, जिसमें उन्होंने पर्याप्त उन्नति की और फिलिप्स कम्पनी के डीलर्स के अध्यक्ष चुने गए। इस सम्बन्ध में एक रोचक बात बताना चाहूँगी। मेरी माँ को फ़जूलख़र्ची की आदत थी। बाबूजी कभी भी अधिक पैसे माँगने के कारण माँ से नाराज़ तो नहीं होते पर उनकी समझ में यह नहीं आता था की इतना ख़र्च किस पर किया जाता है।
वे एकबार मुझसे बोले, ”मैं रोज़ सुबह उठकर तरह-तरह की तिकड़म भिड़ाकर सोचता रहता हूँ कि किस प्रकार मैं पिछले महीने से अधिक इनकम करूँ पर यह जो तेरी माँ है न मुझसे भी एक क़दम आगे है; वह मुझसे पहले ही सोच लेती है कि पिछले महीने से अधिक ख़र्च कहाँ करना है और मुझसे बाज़ी मार लेती है। शायद इसी कारण मेरा व्यवसाय बढ़ता ही जा रहा है।" ऐसी थी उनकी सकारात्मक सोच।
यह सच है कि सभी सुखद परिस्थितियाँ सदैव नहीं रहतीं पर बाबूजी की स्मृतियाँ सदा मेरे साथ हैं। जब भी कुछ अच्छा पढ़ती हूँ, लिखती हूँ तो लगता है जाने-अनजाने मैं उनसे अदृश्य रूप से बातचीत भी कर रही हूँ। वे अपने सुझाव भी दे रहे हैं और आशीर्वाद भी। कभी-कभी लगता है कि वे मुझे डाँट भी रहे हैं और कभी-कभी लगता है गर्व भी कर रहे हैं।
मुझे सदा से ही अपने बाबूजी पर गर्व रहा है कि किस प्रकार उन्होंने न केवल अपने बच्चों को वरन् परिवार के, पास-पड़ोस के और भी कई बच्चों को बहुत-बहुत हँसाया और खेल-खेल में बहुत कुछ सिखाया भी।
पूज्य पिता, न केवल तुमने, हमको जीवनदान दिया।
सहजता व सरसता सहित भाषाज्ञान प्रदान किया ॥
तब लगता था, सदा रहेगा, सब कुछ वैसे का वैसे।
तुम कहाँ गये, हम कहाँ गये, सब विपर्यस्त हुआ जैसे॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
इन्दु जैन ... मेधा और सृजन का योग...
व्यक्ति चित्र | डॉ. रेखा सेठी२७ अप्रैल, सुबह ६.०० बजे शुका का फोन आया…
ऐसे थे हमारे कल्लू भइया!
व्यक्ति चित्र | अजय कुमार श्रीवास्तव (दीपू)बात 1986 की है मैं उस समय हाईस्कूल का छात्र…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
स्मृति लेख
कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
साहित्यिक आलेख
कार्यक्रम रिपोर्ट
कविता - हाइकु
गीत-नवगीत
व्यक्ति चित्र
बच्चों के मुख से
पुस्तक समीक्षा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं