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गोपा, एक संस्मरण 

 

मैं अपने को बहुत भाग्यशाली समझती हूँ कि अपनी मातृभाषा हिंदी के साथ-साथ मैं बांग्ला भी लिख पढ़ सकती हूँ। जब भी मैं बांग्ला भाषा के मधुर संगीत को सुनती हूँ और उनके नाटकों का आनंद लेती हूँ, तब मुझे सचमुच यह लगता है कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ। बांग्ला भाषा और साहित्य का आनंद ले पाना मेरे लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन मेरी बांग्ला भाषा सीखने के पीछे एक कहानी है। 

यद्यपि कोलकाता में मेरा जन्म हुआ, मेरी शिक्षा दीक्षा भी वहीं हुई पर भारत में रहते हुए मैं कभी भी बांग्ला बोलना नहीं सीख सकी। स्कूल में कक्षा सात में बांग्ला भाषा की वर्णमाला से परिचय अवश्य हुआ था और मैं भाषा की वर्णमाला सीख पाई थी, बच्चों की कुछ छोटी-मोटी रचनाएँ पढ़ी थीं। पर स्कूल में मैं बांग्ला बोल नहीं पाती थी। किशोरावस्था में बंगाल के कई प्रतिभाशाली उपन्यासकारों की रचनाएँ हिंदी में अनुवाद के रूप में मैंने पढ़ी थीं। जिन लोगों को मैंने पढ़ा उनके नाम थे शंकर, आशापूर्णा देवी, विमल मित्र इत्यादि। उनसे मैं बहुत प्रभावित होती थी। उनके उपन्यासों के कथानक, कहानी लिखने का उनका रोचक ढंग, जीवन में उनकी गहरी पैठ और उसकी अभिव्यक्ति मुझे बहुत अच्छी लगती थी। बांग्ला उपन्यासों की सहजता मेरे कोमल मन को स्पर्श करती थी। तब सोचती कि काश मैं बँगला पढ़ पाती, पर ऐसा मौक़ा नहीं मिला। 

जब मैं कैनेडा आई तो सौभाग्यवश मेरा कुछ बंगाली परिवारों से परिचय हुआ और उसी समय मैं गोपा नामक एक बंगाली मित्र से मिली, जिसकी प्रेरणा से मैंने बांग्ला भाषा लिखना पढ़ना सीखा। इसके लिये मैं उसके प्रति बहुत कृतज्ञ हूँ। जिस ऑफ़िस में मुझे नौकरी मिली थी, वहाँ पर मेरी कई बंगाली मित्र बनीं, जिनकी बातचीत सुनकर मुझे बांग्ला सीखने में काफ़ी मदद मिली और उनके साथ के कारण मैं उनसे बांग्ला भाषा में बातचीत करने लगी। 

एक बार गोपा के साथ मैं शंकर द्वारा लिखित उपन्यास ‘महानगर’ पर आधारित फ़िल्म देखने गई। यह फ़िल्म सत्यजीत राय द्वारा निर्देशित एक बहुत अच्छी फ़िल्म थी। उसके पश्चात गोपा ने मुझसे पूछा कि क्या तुमने यह किताब पढ़ी है, तो मैंने कहा कि मैंने हिंदी में पढ़ी है। गोपा ने मुझे बताया कि उसके पास ‘महानगर’ है और वह मुझे पढ़ने के लिए दे सकती है। मैंने गोपा से अपनी दुविधा बताई कि मुझे ठीक से बांग्ला पढ़नी नहीं आती। गोपा ने मेरा उत्साह बढ़ाते हुए कहा, तुम इतनी अच्छी बँगला बोल लेती हो, वर्णमाला भी आती है तो कोशिश तो करके देखने में क्या हर्ज़ है? 

अगली बार मिलने पर गोपा ने वह महानगर वाली किताब मुझे हाथ में थमा दी और कहा पढ़ कर देखो और कोशिश तो करो। मैं गोपा जितनी उत्साहित तो नहीं थी पर उसके इतनी बार कहने पर मैंने उससे किताब ले ली। गोपा ने हफ़्ते भर बाद मुझे फोन किया। और पूछा कि तुमने कितने पन्ने पढ़े? 

मैंने तो शुरू भी नहीं किया था पर उसके उत्साह को देखकर मुझे लगा, वह इतनी चेष्टा कर रही है तो मुझे कोशिश तो करनी चाहिए और मैंने पढ़ना शुरू किया। एक नयी भाषा में किताब पढ़ना इतना कठिन लगेगा, यह मैंने सोचा भी न था। बस में ऑफ़िस जाने-आने के समय मैंने बांग्ला की किताब पढ़नी शुरू की। अत्यंत धैर्य के साथ ‘महानगर’ पढ़ती गई, बहुत समय लगा। बीच-बीच में गोपा फोन करती थी कि मैंने कितने पन्ने पढ़े और एक दिन मैंने ‘महानगर’ पूरी पढ़ ली। जिस दिन मैंने बड़े उत्साह के साथ उसे यह बताया तो उसको इतना अच्छा लगा कि उसकी प्रेरणा से मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है। 

अगली बार जब गोपा मुझसे मिली तो उसने मुझे बांग्ला की एक दूसरी पुस्तक पकड़ा दी। इस बार मैंने उत्साह से दूसरी भी पढ़ ली। अब तक मेरे पढ़ने की गति पहले से बहुत अच्छी हो गई थी। धैर्य के साथ मैंने इसी प्रकार बांग्ला की दो-तीन किताबें और पढ़ लीं। तब मुझे सचमुच यह समझ में आया की बांग्ला की पुस्तक बांग्ला में पढ़ने में ही अधिक आनंद आता है। इस प्रक्रिया से मैंने बांग्ला के कुछ शब्द भी सीखे तब मुझे एक विचार मन में आया कि मैंने तो बांग्ला की कई पुस्तकें हिंदी में पढ़ी हैं, मैंने उन पढ़ी हुई पुस्तकों को टोरोंटो की लाइब्रेरी में ढूँढ़ा। जब मैं टोरोंटो की यंग और ब्लूर वाली लाइब्रेरी में पहुँची तो यह देखकर मुझे इतना आश्चर्य हुआ कि वहाँ पर बांग्ला साहित्य की अच्छी-अच्छी किताबें उपलब्ध हैं। मेरे आनंद का ठिकाना नहीं रहा। मुझे विमल मित्र, आशा पूर्णा देवी, शंकर मेरे सब प्रिय कथाकारों की पुस्तकें सहज ही उपलब्ध हो गयीं, जैसे विमल मित्र द्वारा लिखित ‘साहब बीवी ग़ुलाम’ और ‘ख़रीदी कौड़ियों के मोल’। इन पुस्तकों को पढ़ने में मुझे बड़ी सहजता का अनुभव हुआ और इसके बाद से एक सिलसिला चल निकला। मैं नियम से टोरोंटो की इस बड़ी लाइब्रेरी में जाती और बांग्ला की किताब लेकर ऑफ़िस के आने-जाने के रास्ते में पढ़ती। इस प्रकार मेरे बांग्ला पढ़ने को एक गति मिल गई और एक दिन मुझे अनुभव हुआ कि इतना बांग्ला पढ़ते-पढ़ते मैं कभी-कभी बांग्ला में सोचने भी लगी हूँ। तब मुझे लगा अब मैं सच में बांग्ला पढ़ना सीख गई। 

मैं गोपा को हृदय से धन्यवाद देना चाहती हूँ कि उसकी प्रेरणा के कारण मुझे बांग्ला पढ़ना आ गया और अब तो कंप्यूटर की सहायता से बांग्ला लिखना भी आसान हो गया है। मुझे लगता है कि मित्रों से कुछ सीख पाना अत्यंत आनंददायी अनुभव है। धन्यवाद गोपा! 

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