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एक साधारण सी औरत

वह सचमुच एक अत्यंत साधारण सी औरत थी। लोगों की आँखों के सामने से गुज़र जाए तो कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता। अधिकतर लोगों को उसका नाम भी नहीं पता था। पड़ोस भर में वह मुन्ना की माँ के नाम से ही जानी जाती थी। मुन्ना की माँ के माँ-बाप का पता नहीं था एक अनाथ आश्रम में बड़ी हुई थी इसीलिए प्यार की बहुत भूखी थी। अनपढ़ भी थी, केवल प्रेम की भाषा में पारंगत थी। कुछ ऐसी स्मृतियाँ उसके साथ जुड़ी हैं कि आज कई दशकों के बाद भी उसे मैं कभी भूल न सकी, जब तब उसका ध्यान आ ही जाता है। 

उसके पति एक साधारण से टैक्सी चालक थे, साधारण सी आय थी, जितना कमाते, उतना घर गृहस्थी में ख़र्च हो जाता। कलकत्ते जैसे शहर में रहकर भी उनके घर में एक पंखा तक न था। अभाव का जीवन था। पति-पत्नी और एक छोटा बच्चा, यही थी उसकी एक कमरे की गृहस्थी। वह सदैव घर के काम में ही लगी रहती, जब भी दोपहर को ख़ाली समय मिलता पड़ोस के किसी भी बच्चे को गोद में उठाए रहती। उसको सम्हालते हुए अपने घर का सब काम करती। दूसरे के बच्चों पर निःस्वार्थ भाव से इतना प्यार लुटाने वाली दूसरी औरत मैंने आज तक नहीं देखी। 

मेरी माँ को भी उसके प्रति बड़ा विश्वास था। बच्चे के मामले में मेरी माँ उस पर ही सबसे ज़्यादा भरोसा करती थी। मुझे अभी भी याद है, बचपन में कई बार मैं अपने खिलौनों के साथ उसके कमरे में खेलती रहती थी। वह किसी से भी बात नहीं करती थी। किसी पचड़े में उसको कोई रुचि नहीं थी। उसका एक ही परिचय था कि उसको बच्चों से बड़ा प्यार है और बच्चे भी उसके साथ प्रसन्न रहते थे। दूसरे के बच्चों को कोई कष्ट नहीं हो इसलिए वह अपने शरारती से बेटे को डाँटती ही रहती थी। 

मुझे मुन्ना की माँ के सम्बन्ध में कई बातें भुलाए नहीं भूलतीं। 

बचपन में मुझे ध्यान है कि वह औरत केवल दो ही साड़ियों को बदल-बदल कर पहनती थी। एक पहनती, दूसरी धो कर सुखा देती। मुझे आश्चर्य होता कि सभी औरतों के पास कितने सारे कपड़े होते हैं पर उसके पास केवल दो ही साड़ी क्यों है? एक बात और याद आती है कि हर करवाचौथ के एक दिन पहले वह मेरी माँ के पास आती थी तो मेरी माँ उसको देखते ही बिना कुछ कहे एक सिल्क की साड़ी उसको दे देती, पूजा के समय पहनने के लिए। मेरी माँ के मना करने पर भी ज़िद करके वह साड़ी अगले दिन वापस कर देती। वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। धन का अभाव होने के उपरांत भी उसमें आत्मसम्मान का अभाव न था। 

बहुत सारी स्मृतियाँ जुड़ीं हैं मुन्ना की माँ के साथ। उन दिनों ऐसी प्रथा थी कि दीवाली के दूसरे दिन लोग पड़ोसी घरों में गुजिया, बेसन के लड्डू तथा अन्य पकवान उपहार स्वरूप भिजवाते थे। मेरी माँ भी सुबह से इस कार्य में जुट जाती थीं। इसी प्रकार हमारे घर में भी पड़ोसी घरों से थाली भरकर मिठाइयाँ आती थीं। लेकिन हम बच्चे लोग उत्सुकता से प्रतीक्षा करते कि कब मुन्ना की माँ के घर से पकवान आएँगे क्योंकि उसकी मिठाई बहुत स्वादिष्ट होती थी। 

मेवे से भरी गुजिया बनाने में केवल परिश्रम और कौशल ही नहीं, अतिरिक्त धन की भी आवश्यकता होती है। मुन्ना की माँ अपनी अभावमयी गृहस्थी में इतने सारे मेवे कैसे ख़रीदती होगी, हम बच्चों ने कभी नहीं सोचा था। इसके लिये कितने दिनों से पैसे बचा रही होगी। यह अब समझ में आता है पर तब नहीं आता था। शायद यही उसका एक तरीक़ा था वह मेरी माँ को इस रूप में धन्यवाद देना चाहती थी। बहुत मुस्कुराते हुए थाली भरकर मिठाई लाती, मेरी माँ उसके स्नेह को समझती और संकोच के साथ ले लेती। 

एक और स्मृति है मुन्ना की माँ के साथ मेरी। वह मुझे विशेष रूप से प्यार करती। एक बार मेरी माँ के पास वह बड़े संकोच से आकर बोली कि क्या तुम इस बार राखी के दिनअपनी बेटी को मेरे बेटे को राखी बाँधने के लिए भेजोगी? मेरी माँ ने उसकी आँखों में मेरे लिए उमड़ता हुआ प्यार देखा तो सहज ही मान गई। उसके बाद हर रक्षा बंधन में मैं उसके बेटे को राखी बाँधने जाती थी। उस दिन सुबह तीन-चार बार मुन्ना आकर मुझे अपने घर आमंत्रित कर जाता। बार-बार पूछता, “दीदी कब आओगी?” मेरे जाने पर वे लोग बहुत ख़ुश होते। पूरा परिवार आँखें बिछाए रहता। 

पर इसमें कष्ट की बात यह होती कि मेरे कई समवयस्क बच्चे मेरा उपहास भी करते कि देखो इसका भाई कैसा है, क्योंकि वह एक सीधा-साधा ग़रीब लड़का था। दूसरे बच्चों की तरह इतना चालाक नहीं था, उसका रहन-सहन अति साधारण था। लोग उसका मज़ाक उड़ाते ही रहते थे। 

एक और बात याद आती है। मेरी दीदी की जब शादी हो गई तो वह मुझे बराबर पत्र लिखती थी। मुन्ना की माँ प्रायः उसके बारे में पूछती थी कि वह कैसी है। साथ यह भी कहती कि उसको चिट्ठी में लिख देना। मेरे पूछने पर कि क्या लिखूँ, उत्तर मिलता कि “वही लिख दो जो लिखा जाता है।” मन ही मन हँसी तो आती पर उनके भोलेपन पर मैं मुग्ध भी हो जाती। 

जब मेरा विवाह ठीक हो गया उसके बाद एक दिन मुन्ना की माँ मेरी माँ के पास अकेले में आई। अपनी बचत के डेढ़ सौ रुपए देकर मेरी माँ से बोली कि बिटिया के लिए कुछ सोने का बनवा देना। मेरी माँ जानती थी कि यह उसकी बहुत दिनों की बचत की हुई धनराशि है। उन्होंने उसको समझाते हुए कहा कि इतना देने की क्या ज़रूरत है? वह बोली कि “तुम्हारी बेटी मेरी भी तो बेटी है। वह मेरे बेटे को राखी बाँधती है।” उसके प्रेम को देखकर मेरी माँ की आँखों में आँसू आ गए और उन्होंने अपनी ओर से और भी पैसे जोड़ कर मुझे एक कानों की सोने की जोड़ी बनवा दी और उससे कहा कि यह तुम्हारी तरफ़ से मैं बेटी को दे रही हूँ। यह उसके द्वारा किसी को दिया गया जीवन का सम्भवतः सबसे महँगा उपहार रहा होगा। ऐसे व्यक्ति को मैं क्या कभी भूल सकती हूँ? कभी कभी लगता है कि स्मृति के झरोखे से झाँककर अपनी मधुर मुस्कान बिखेरती हुई वह मुझसे पूछ रही है, “बिटिया ठीक तो हो न?” वह मेरे मन में एक मधुर स्मृति सी सदैव बसी रहती है। 
 

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