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कवि और कविता

तू कहाँ खो गयी कविता रानी?
पहले तो तू बड़े प्यार से 
भावों की राह चलाती थी
अलंकार से हो सज्जित
नित रूप नए दिखलाती थी
भावों में गहरे पैठाकर
रचनाएँ लिखवाती थी॥1॥


पर कैसी बही उलटी गंगा
समझ न सका तेरी माया?
तेरी प्रतीक्षा मुझे है प्रतिपल
दीखे नहीं तेरी छाया॥2॥


प्रिय कविते, तूने कवि बनाकर 
ख़ूब बनाया है मुझको,
यूँ  मंझधार में छोड़ दिया है,
दया न आती है तुझको?॥३॥


मेरे सारे मित्रों ने ही
पुस्तकें कई छपा डालीं,
उनकी बगिया है हरी–भरी,
पर मेरी है खाली–खाली॥४॥

आज सभा का कवि-सम्मलेन
निमंत्रण है मैंने पाया,
भाव प्रेरित तू कर हे देवी,
मन मेरा कोमल मुरझाया॥५॥


जीवन की आपाधापी में 
ध्यान नहीं आया तेरा,
आज समझ में आया मुझको 
निश्चय ही है दोष मेरा॥६॥


भविष्य में तेरा साथ निभाने 
समय अवश्य निकालूँगा,
दे दे दान बस एक कविता का
श्रेय तेरा ही मानूँगा॥७॥

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