उर्मिला की व्यथा
काव्य साहित्य | कविता आशा बर्मन17 Feb 2014
मन में ही रही मन की बात,
कभी न ओठों तक ला पायी
जो हृदय लगा आघात।
जब आयी थी मैं विवाह कर,
हँसते-गाते सभी परस्पर,
नहीं जान पायी कब कैसे
बीते वे सुखमय दिन सत्वर।
अनमोल पलों से सजे सजे
वे अपने दिन रात,
मन में ही रही मन की बात।
सहसा कैसे दुर्दिन घिर आये,
केकैयी माँ ने दुर्वचन सुनाये,
राजा से पाकर दो वर,
रामचंद्र वनवास पठाए।
आनंद भरे मेरे जीवन पर
हुआ कुठाराघात।
मन में ही रही मन की बात।
जब भरत गए तुमको लौटाने,
क्षीण आशा थी जागी मन में,
वह आशा भी हुई विफल,
व्यथा भरी मेरे कण कण में।
कितना अवशिष्ट रहा प्रियतम
कहना- सुनना, तुमसे तात,
मन में ही रही मन की बात।
पति हैं पर जीवन पतिविहीन,
विरह में हो रही हूँ क्षीण,
सबके बीच भी हूँ एकाकी,
जीवन मेरा हुआ सारहीन
सूने सूने से हो गए,
अब मेरे दिन- रात।
मन में ही रही मन की बात।
न जाने प्रिय अब कब आयेंगे?
मुझको क्या जीवित पायेंगे?
बरसों पर यदि मिल भी पायी,
मुझको क्या वैसा पायेंगे?
जीवन की बाजी में मैंने,
केवल पायी है मात।
मन में ही रही मन की बात|
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