जीवन की साँझ
काव्य साहित्य | कविता आशा बर्मन13 Dec 2015
जीवन की साँझ का प्रहर
ढल चली है दोपहर
बयार मंद मंद है
धूप भी नहीं प्रखर
यह समय भला भला,
नये से रूप में ढला,
जीवन का नया मोड़ है
न कोई भाग दौड़ है
काम का न बोझ है
जाना न कहीं रोज है
जब जो खुशी वही करो
न मन का हो नहीं करो
चाहे जहाँ चले गये
पूरे दायित्व हो गये
न सर पे मेरे ताज है
फिर भी अपना राज है
तन थका न क्लान्त है
मन भी बड़ा शान्त है
दिन रात तेरा साथ है
बड़ी मधुर सी बात है
जो मिल गया प्रसाद है
न अब कोई विषाद है
बगिया की हर कली खिली
उसे सभी खुशी मिली
मकरन्द जो बिखर गया,
सौन्दर्य सब निखर गया
आज तुम जी भर जियो
खुशी के घूँट तुम पियो
कल की कल पे छोड़ दो
कल जो होना है सो हो
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