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सम्बन्ध –सेतु

अब कोई भय नहीं है। 
नहीं,अब कोई भय नहीं है। 
वर्षों के हमारे संबंधों ने 
तिल-तिल जल कर,
कण-कण बदलकर,
हमारे बीच एक ऐसे 
सेतु का निर्माण किया है कि 
निःशंक होकर कह सकती हूँ 
कि अब कोई भय नहीं है।


हम हैं दो अलग व्यक्तित्व 
भाव से, व्यवहार से,
आचार से, विचार से,
सदैव हम रहें एकमत 
यह सोचना है व्यर्थ,
विरोधों में भी पाये हमने 
अपने जीवन के अर्थ।


एक नदी के दो किनारों की तरह,
साथ रहकर भी हम हैं अलग,
और अलग रहकर भी
हम हैं साथ-साथ।


इसी सम्बन्ध-सेतु ने ही
हमें मिलाया है, वह सेतु,
जिसे बड़े प्यार से 
हमने बनाया है।


जब भी हमें दूरी महसूस हुई, 
इससे पूर्व कि हम और दूर हो जाएँ,
हम उस पुल को देखते हैं,
जिसने अपनी बाँहों का
सहारा देकर हमें मिलाया है 
और, हमेशा हमेशा के लिए 
हमें और भी निकट ले आया है।


उसी सेतु के सहारे ही 
हम एक दूसरे को देखते,
स्पर्श और अनुभव करते हैं।


अब तो यह सब इतनी 
सहजता से होता है कि 
मुझे आश्चर्य भी नहीं होता। 


आश्चर्य तो मुझे तब होता है,
जबकि विरोध के समय
मन की गहराई से 
एक आवाज़ सी आती है-


'सबसे पहले दूसरे की बात सुनो 
और कुछ कहने से पहले सोचो',
मन में तुम्हारे है जो शूल,
शायद वह हो तुम्हारी ही भूल।


और सहसा विरोध की आँच 
और नहीं सुलगती है,
वरन वह तो क्रमशः 
धीमी पड़ने लगती है। 
 

विरोध की अग्नि में 
हमारा प्यार तपता है 
सोने सा निखरकर वह 
और भी दमकता है।


तभी तो कहती हूँ कि 
हमारे प्यार का प्रतीक 
है यह सेतु, जिसने 
हमें मिलाया है। 
जन्म-जन्मांतर के 
इस सम्बन्ध को 
और भी शाश्वत बनाया है।

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