श्री सुमित्रानंदन पंत
आलेख | साहित्यिक आलेख आशा बर्मन1 Jun 2023 (अंक: 230, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
श्री सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि रहे हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में छायावाद का बहुत महत्त्व है। व्यक्ति तथा सामाजिक आध्यात्मिक दर्शन आदि ने छायावादी काव्यधारा को जन्म दिया, जिसमें जीवन की सूक्ष्म स्थितियों को आकार प्राप्त हुआ, यह प्रधानतः प्रकृति काव्य है। प्रकृति का मानवीकरण अर्थात् प्रकृति पर मानव व्यक्तित्व का आरोप है। छायावाद काव्य के चार स्तंभ माने गए हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा तथा सुमित्रानंदन पंत, इन चार कवियों के कारण छायावाद का आरंभ तथा विकास हुआ।
भारतवर्ष के वर्तमान उत्तराखंड राज्य के कौसानी ग्राम में पंत जी का जन्म हुआ। उनका जन्म 1900 ईसवी में 20 मई को हुआ। बचपन में हिमालय के प्रांगण में कौसानी के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच में पलने बढ़ने के कारण उनकी कविताओं में प्रकृति का बहुत ही सुंदर चित्रण है। वे प्रकृति और सौंदर्य के सुकुमार कवि के रूप में विख्यात हैं। उन्हीं के शब्दों में, “कविता की प्रेरणा सबसे पहले मुझे प्रकृति के निरीक्षण से मिली। जिसका श्रेय मेरी मातृभूमि को है। मुझे याद है कि कवि जीवन से पहले भी बचपन में मैं घंटों प्रकृति को एकटक देखा करता था।”
पंत जी के लगभग 35 काव्य-संग्रह हैं, जिनमें ‘उच्छ्वास’, ‘ग्रंथ”, ‘वीणा’, ‘पल्ल’, ‘गुंज’, ‘ग्राम्या, ‘स्वर्ण-किरण’, ‘पल्लविनी’, ‘चिदम्बरा’ एवं ‘लोकायतन’ मुख्य हैं। इन्होंने कविता को, भाव एवं भाषा सामर्थ्य तथा नई छंद सृष्टि का उपहार दिया। उन्होंने बचपन से ही कविता लिखना शुरू किया था और दीर्घकाल तक वे लिखते रहे, पर इनके लेखन की विशेषता यह रही है कि इनके लेखन में निरंतर विषय, शैली सभी दृष्टियों से विकास होता ही रहा।
उच्च शिक्षा के लिए पहले वे काशी में रहे और फिर प्रयाग में। 1921 में उन्होंने गाँधीजी के ‘असहयोग आंदोलन’ से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ दिया और इसके पश्चात स्वयं ही घर पर ही उन्होंने अध्ययन आरंभ किया और उन्होंने हिंदी, बँगला, संस्कृत और अंग्रेज़ी का अध्ययन किया इसके पश्चात कई वर्षों तक लेखन में व्यस्त रहे।
विषय के साथ उनकी लेखन शैली भी परिवर्तित होती रही। प्रकृति से संबंधित उनकी रचनाओं की भाषा चित्रात्मक और अलंकारों से पूर्ण हैं। शब्दों में भी एक गति, लय तथा छंद है उदाहरण स्वरूप:
“चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर!
सिकता की सस्मित-सीपी पर,
मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो पालें चढ़ीं, उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर,
लघु तरणि हंसिनी सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर,
बिंबित हो रजत पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!”
उनकी रचनाओं में पशु पक्षियों के प्रति प्रेम परिलक्षित होता है और एक बहुत ही उनकी प्रसिद्ध कविता है:
“प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।
शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।”
पंत जी की आरंभिक रचनाओं में प्रकृति प्रेम प्रमुख अवश्य है पर बाद में उनकी रचनाएँ यथार्थवादी होती चली गयीं। 1940 के लगभग पंत जी सपनों के देश से यथार्थवादी जगत में आए। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ा और इसके पश्चात उनकी रचनाओं में देश प्रेम तथा दर्शन का प्रभाव दिखता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने पंत जी के बारे में लिखा कि “हिंदी में उनकी प्रवृत्ति इस जगजीवन से अपने लिए सौंदर्य चयन करने की थी आगे चलकर उनकी कविताओं में इस सौंदर्य की संपूर्ण मानव जाति तक व्याप्ति की आकांक्षा प्रगट होने लगी।”
उनकी रचनाओं में देश प्रेम:
“जय जन भारत जन मन अभिमत
जय जन भारत जन मन अभिमत
जन गण तंत्र विधाता
जय गण तंत्र विधाता
गौरव भाल हिमालय उज्ज्वल
हृदय हार गंगा जल
कटि विंध्याचल सिंधु चरण तल
महिमा शाश्वत गाता
जय जन भारत . . .
हरे खेत लहरें नद-निर्झर
जीवन शोभा उर्वर
विश्व कर्मरत कोटि बाहुकर
अगणित पग ध्रुव पथ पर
जय जन भारत . . .
प्रथम सभ्यता ज्ञाता
साम ध्वनित गुण गाता
जय नव मानवता निर्माता
सत्य अहिंसा दाता
जय हे जय हे जय हे
शान्ति अधिष्ठाता
जय-जन भारत . . . ”
भारत की गौरव गाथा का एक रूप ‘परिवर्तन’ कविता से:
“आज कहाँ वह पूर्ण पुरातन,
वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत छवि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल?
कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दुःख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित ज़रा मरण भ्रू-पात।
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन”
पंत जी कुछ वर्षों तक मद्रास में भी रहे। उस काल में उन पर श्री अरविंद जी के दर्शन का बहुत प्रभाव रहा। ‘स्वर्ण धूलि से उत्तरा’ तक के इनके काव्य में श्री अरविन्द जी के दर्शन की भी छाप है। उनके दर्शन की एक झलक इस कविता में स्पष्ट है:
“जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!
जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मिट जावें जिसमें अखिल व्यक्ति!
भारतीय दर्शन जैसे गंभीर विषय पर कविता लिखने के उपरांत भी उन्होंने बच्चों के लिए भी बाल कविताएँ भी लिखी हैं, एक उदाहरण प्रस्तुत है, एक बालिका अपनी माँ से अपने मन की बात इन शब्दों में कहती है:
“मैं सबसे छोटी होऊँ,
तेरी गोदी में सोऊँ,
तेरा अंचल पकड़-पकड़कर
फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,
कभी न छोड़ूँ तेरा हाथ!
अपने कर से खिला, धुला मुख,
धूल पोंछ, सज्जित कर गात,
थमा खिलौने, नहीं सुनाती
हमें सुखद परियों की बात!”
चींटी
“चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।”
एक और रोचक बाल कविता का उदाहरण प्रस्तुत है:
“मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फ़सलें खनकेंगी
और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने ग़लत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को,
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!”
उनके कुछ कविता संग्रह के नाम इस प्रकार हैं—वीणा, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्रामीण, उत्तरा इत्यादि उनकी अन्य रचनाएँ भी है। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी तथा आत्मकथा लिखी हैं। रश्मि, चिदंबरा, वाणी इत्यादि अपनी रचनाओं के लिए इनको कई सम्मानित पुरस्कार भी मिले हैं, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा साहित्य अकादमी।
पंत जी की जन्मशती के अवसर पर ‘स्वच्छंद’ नाम से एक ग्रन्थ राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया, जिसमें उनकी समग्र रचनाओं का संचयन है।
श्री सुमित्रानंदन पंत जी जीवन में एक अत्यंत उदार और कोमल व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं और उनके साहित्य में भी यही कोमलता और सौंदर्य सर्वत्र व्याप्त है। श्री सुमित्रानंदन पंत जी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे इतने सरल व्यक्ति थे कि जो भी लेखक उनसे कहता था कि आप मेरी पुस्तक की भूमिका लिख दीजिए, वे सहज ही मान जाते थे। किसी को ना नहीं कर सकते थे।
इसी प्रकार मैंने उनके जीवन से सम्बन्धित एक पुस्तक पढ़ी जिसमें उनके कई पत्र बच्चन जी के नाम हैं। उनको पढ़ने से ज्ञात होता है कि वे अपने मित्रों की समस्याओं को सुलझाने के लिए कितना व्यग्र रहते थे। एक दीर्घकाल तक उन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा की और निरंतर उनके साहित्य में भाषा की दृष्टि से शैली की दृष्टि से एक विकास, एक प्रगति हम देखते हैं। इसके साथ ही साथ उनके साहित्य में विषय की दृष्टि से विविधता है।
मुझे प्रसन्नता है कि मुझे सुमित्रानंदन पंत जी की बहुआयामी प्रतिभा के सम्बन्ध में लिखने का और उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व को समझने का अवसर मिला।
संदर्भ:
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